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Showing posts from July 10, 2010

जेब खर्च के लिए ‘बाप’ बन रहे छात्र

आज एक लेख पर मेरी नजर पड़ी समझ नहीं आया की आखिर समाज इतना आगे निकल चूका है या मैं ही कुछ पीछे चल रहा है हूँ,विज्ञान तो आगे बाधा ही है साथ ही साथ युवाओं की मानसिकता में भी काफी बदलाब आया है..जरा गौर फरमाइए इस लेख पर और बताइए क्या.भारतीय संस्कृति में इस तरह की चीज़ों के लिए कोई जगह है या नहीं? क्या इन चीज़ों के साथ भारतीय संस्कृति फल फूल पाएगी? आपकी राय महत्वपूर्ण है:-     बाप बनना बड़ी जिम्‍मेदारी का काम है। यह जिम्‍मेदारी निभाने में काफी खर्च भी करना पड़ता है। पर आजकल एक उल्‍टा चलन चल पड़ा है। कुछ छात्र ‘बाप’ बन कर कमाई कर रहे हैं।महानगरों में यह चलन जोर पकड़ रहा है। छात्र स्‍पर्म डोनेट कर अपना जेब खर्च निकालते हैं। स्‍पर्म बैंक उनके स्‍पर्म जमा करता है और एक बार में एक से दो हजार रुपये तक देता है। बैंक यह स्‍पर्म आईवीएफ के जरिए बच्‍चा पैदा करने वाले किसी नि:संतान दंपती को बेचता है। इस तरह छात्र कमाई भी कर लेते हैं और किसी नि:संतान दंपती के बच्‍चे का ‘बाप’ भी बन जाते हैं। हालांकि ‘बाप’ के रूप में उनके इस दर्जे को कोई कानूनी या सामाजिक मान्‍यता नहीं होती। सच तो यह है कि उन्‍हें पता भी

लो क सं घ र्ष !: अफजल गुरु कांग्रेस का दामाद है या भारतीय जनता पार्टी का कृपया चुनाव करें

मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी व सत्ता में कांग्रेस में आज कल बहस चल रही है कि अफजल गुरु उनकी पार्टी का दामाद है या मुख्य विपक्षी दल का दामाद है । इसी विषय पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी से लेकर कांग्रेस के छुटभैया नेता तक विभिन्न मामलों को लेकर उसे साले - बहनोई एक दूसरे का बता रहे हैं । जैसे अगला संसदीय चुनाव का मुख्य मुद्दा अफजल गुरु या कसाब को दामाद बनाने पर होना है । आज जब देश की जनता महंगाई , बेरोजगारी , भुखमरी , शोषण से परेशान है तो दोनों पार्टियां जनता का ध्यान बांटने के लिए अपनी नौटंकी जारी रखे हुए हैं । देश की कुछ हिस्सों में जबरदस्त सूखा है जिससे फसलों की बुवाई तक नहीं हो पा रही है वहीँ दूसरी ओर कुछ हिस्सों में भयंकर बाढ़ से जनजीवन अस्त - व्यस्त हो गया है । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह साम्राज्यवादी शक्तियों के इशारों पर पेट्रोलियम पदार्थों की सभी सब्सिडी वापस लेने के लिए कटिबद्ध हैं जब कि बहु राष्ट्रीय निगमों व पूंजीपतिय

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भोपाल गैस त्रासदी : एक शब्द चित्र

भोपाल गैस त्रासदी : एक शब्द चित्र डॉ. कमल जौहरी डोगरा, भोपाल * याद है उन्नीस सौ चौरासी दो दिसंबर की वह भीषण रात और तीन दिसम्बर का धुंधला सवेरा बीत गए जिसके छब्बीस साल. शीत ऋतु की काली रात वह गैस त्रासदी के लिये कुख्यात. बन गयी बिकाऊ खबर विश्व-नक़्शे पर उभर आया भोपाल. सहानुभूति-सहायता का समुद्र लहराया पत्रकारों, छायाकारों की भारी भीड़ नेताओं की दौड़-भाग, गहमा-गहमी सब उमड़ आये भोपाल में बादलों से. कुछ देर में छँट गए थे बादल बिना बरसे उड़ गए हवा में शीघ्र रह गयी जनता कराहती, दुःख भोगती अनाथ बच्चे, विधवा नारियाँ बिसूरती. पुरुष जो बच गए, पुरुषार्थ से हीन आजीविका कमाने में असमर्थ वे परिवार बिखरे, कुछ के लापता सदस्य जो आज तक गुमशुदा सूची में हैं. कैसी घोर विपत्ति की थी रात? सड़कों पर भीड़, भागता जन समूह कहीं भी, कैसे भी भोपाल से दूर भाग जाने को व्याकुल. पर दिशाहीन इन मानवों का  दिशादर्शन करनेवाली वाणी मौन थी. सरकारी घोषणा न थी कहीं कोई भेड़ों सी भागती जनता थी सब कहीं. स्मरण है हम भी

कविता : संजीव 'सलिल'

कविता  :  संजीव 'सलिल' * * जिसने कविता को स्वीकारा, कविता ने उसको उपकारा. शब्द्ब्रम्ह को नमन करे जो, उसका है हरदम पौ बारा.. हो राकेश दिनेश सलिल वह, प्रतिभा उसकी परखी जाती-  होम करे पल-पल प्राणों का, तब जलती कविता की बाती.. भाव बिम्ब रस शिल्प और लय, पञ्च तत्व से जो समरस हो. उस कविता में, उसके कवि में, पावस शिशिर बसंत सरस हो.. कविता भाषा की आत्मा है, कविता है मानव की प्रेरक. राजमार्ग की हेरक भी है, पगडंडी की है उत्प्रेरक.. कविता सविता बन उजास दे, दे विश्राम तिमिर को लाकर. कविता कभी न स्वामी होती, स्वामी हों कविता के चाकर.. कविता चरखा, कविता चमडा, कविता है करताल-मंजीरा. लेकिन कभी न कविता चाहे, होना तिजोरियों का हीरा.. कविता पनघट, अमराई है, घर-आँगन, चौपाल, तलैया. कविता साली-भौजाई है, बेटा-बेटी, बाबुल-मैया.. कविता सरगम, ताल, नाद, लय, कविता स्वर, सुर वाद्य समर्पण. कविता अपने अहम्-वहम का, शरद-पग में विनत विसर्जन.. शब्द-साधना, सताराधना, शिवानुभूति 'सलिल' सुन्दर है. कह-सुन-गुन कवितामय होना, करना निज मन को मंदिर है.. ***************

हम पहले के टॉपर है.. फिर से बाज़ी मारेगे..

हम जान लगा देगे॥ पर हिम्मत नाही हारे गे॥ हम पहले के टॉपर है॥ फिर से बाज़ी मारेगे॥ समय समय पर करू पढाई॥ समय का रखता ध्यान॥ यही समय है कुछ बनाने॥ साहब नेता नबाब॥ चढ़ जायेगे शिखा के ऊपर॥ नयी नयी बात निकाले गे॥ हम पहले के टॉपर है॥ फिर से बाज़ी मारेगे॥ अपने माँ के अरमानो का॥ हमें बहुत है ख्याल॥ अगर पैर पीछे हटाता है॥ होगा उन्हें मलाल॥ भारत माँ की धरती पर॥ नयी उपज उपारेगे॥ हम पहले के टॉपर है॥ फिर से बाज़ी मारेगे॥ तब सफलता कदम चूमेगी॥ खुशिया का मौसम आयेगा॥ बन जायेगे महा पुरुष हम॥ कभी समय बतलायेगा॥ अपनी विद्दया के झंडे को॥ एक दिन हम भी गाड़ेगे॥ हम पहले के टॉपर है॥ फिर से बाज़ी मारेगे॥

मेरी मौत बुला रही है..

लगता है मेरी मौत मुझको बुला रही॥ देखो ज़रा गगन में ओ सज के आ रही है॥ मेरी भी अर्थी को तुम लोग भी सजाओ॥ गम में थोड़ा डूब के आंसूओ को बहाओ॥ मेरी करनी कथनी पे ओ मुस्का रही है॥ लगता है मेरी मौत मुझको बुला रही॥ देखो ज़रा गगन में ओ सज के आ रही है॥ मैंने कभी किसी पे दया दृष्ट नहीं डाली॥ मौक़ा मिला हमें जब खाली किया थाली॥ कैसे कर्म थे मेरे अब मुझको बता रही है॥ लगता है मेरी मौत मुझको बुला रही॥ देखो ज़रा गगन में ओ सज के आ रही है॥ सदा किया था घात सूझा हमें उत्पात॥ हमेशा मैंने अपनी दिखया था औकात॥ मेरे ही पाप की बू से बदबू आ रही है॥ लगता है मेरी मौत मुझको बुला रही॥ देखो ज़रा गगन में ओ सज के आ रही है॥
कोमल सा तन है बहुत लजाती॥ पड़ोस वाली लड़की हमें याद आती॥ होठो से हंसी की पहेली बुझाती॥ पड़ोस वाली लड़की हमें याद आती॥ कजरारी आँखे सुरीली है बोली॥ घने घने केश है करते ठिठोली॥ मेरे घर का चक्कर हमेशा लगाती॥ पड़ोस वाली लड़की हमें याद आती॥ नाजुक बदन पर श्वेत रंग का शूट है॥ मुझसे है कहती तुम्हारे लिए छूट है॥ सपनो में मुझको आके जगाती ॥ पड़ोस वाली लड़की हमें याद आती॥ उसकी अदाओं का मै हूँ दीवाना॥ उसके अब सपने हमें है सजाना॥ इशारों पे अपने मुझको नचाती॥ पड़ोस वाली लड़की हमें याद आती॥ कहे कोई कुछ ताना मारे जबाना॥ मैंने अब ठाना है नहीं है डराना॥ मेरे माँ बाप से थोड़ा लजाती है॥ पड़ोस वाली लड़की हमें याद आती॥

हर दिन प्रातः उठ कर वह.. हमें पूजने आता है..

हर दिन प्रातः : : उठ कर के वह॥ मेरे समीप आटा है ॥ अपने नाजुम हाथो से॥वह॥ मेरे पैर दबाता है॥ मै गूंगा बैठा कुछ न बोलू॥ वह अपनी बात बताता है॥ अमृत गंगा के जल से वह॥ रोज़ हमें नहलाता है॥ कितना अद्भुत बालक है वह॥ मेरी ही रट लगाता है॥ कभी कभी वह पूछ बैठता॥ क्या तुम कभी न बोलो गे॥ दादा कहते तुम भोले हो। आज नहीं कल डोलो गे॥ पाने हाथो से पुष्प पान ला॥ मुझपर रोज़ चढ़ाता॥ उस बालक की छाप निराली॥ जो हमें पूजने आता है॥

लो क सं घ र्ष !: लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान की उद्घोषणा १२ जुलाई से

हिंदी चिट्ठाजगत में कुछ ऐसे चिट्ठाकार हैं जिनके तेवर का अंदाजा उन्हें गहराई से पढ़े और महसूस किये बगैर नहीं लगा सकते ....जो अपने मस्तिस्क की आग को समूची दुनिया के हृदय तक पहुंचाने को बेताब है और पूरी दुनिया की क्रान्तिधारा को आप तक पहुंचाने को तत्पर । किसी को कविता में महारत हासिल है तो किसी को कहानी या फिर संस्मरण में .....कोई आलेख तो कोई शब्दों की श्रृंखला बनाता है .....कोई करता है उद्घोष अपनी राष्ट्रभाषा का तो कोई जूनून की हद तक जाकर करता है सृजन कर्म ....कोई गीत रचता है तो कोई ग़ज़ल ....सबकी अपनी -अपनी अलग विशेषता है । सभी अपने फन में माहिर है सभी श्रेष्ठ हैं ......हम इन्हीं श्रेष्ठ सृजनकारों से आपको रूबरू कराने जा रहे हैं १२ जुलाई से प्रत्येक दिन परिकल्पना और ब्लोगोत्सव-२०१० पर प्रात: ११ बजे और अपराह्न ३ बजे .........देखना न भूलें ! सुमन