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Showing posts from November 22, 2010

बढता भारत संभालो युवावर्ग

मनमोहन जी कुच्छ यु बोले .............                  अब तो दुनिया मै                                   भारत की है साख बड़ी फ़्रांस , रूस , चीन , अमेरिका मै                                रिश्तो की अब बात बनी       दक्षिण एशिया के पास तो                               तेजी से बड़ने की वो शक्ति है  लेकिन ये सब बाते तो                शांति , सोहार्द पर ही निर्भर करती हैं पाकिस्तान के संबंधो को                      सामान्य बनाने का विचार किया लेकिन आतंकी तंत्र पर काबू पाने तक                        उस बात को वही तमाम किया राजनीति की रेल - पेल  से                       थक कर युवावर्ग को सम्मान दिया राहुल जी की तारीफों मै ,                    उसको एक अच्छा  नेता कह भी दिया चलो किसी व्यक्ति ने तो                    युवावर्ग का ख्याल किया कुर्सी पर तो अभी बैठा न कोई               पर बच्चों  का होंसला तो बड़ा दिया !

पत्रकारिता यदि व्यवसाय है तो क्या व्यवसाय में आदर्श की हत्या माफ होती है?

समय, काल, परिस्थितियों के साथ-साथ पत्रकारिता की परिभाषा भी बदली है। उसका रूप, रंग और उद्देश्य ने भी करवट ली है। जिस पत्रकारिता का जन्म कभी 'मिशन' के तौर पर हुआ माना जाता था और जिसने अपनी महत्ता समाज़ की बुराइयों को जड से नष्ट करने के लिये स्थापित की थी वो आज अपनी उम्र के एक ऐसे पडाव पर आ पहुंची है जहां आगे खतरनाक खाई है और पीछे धकेलने वाले हजारों-हजार नये किंतु ओछे विचार। ये ओछे विचार ही आज की मांग बन चुके हैं। ऐसे विचार जिनमे स्वार्थगत चाटुकारिता निहित है, बे-ईमानी को किसी बेहतर रंग-रोगन से रोशन किया गया हैं और जिनमे ऐसे लोगों का वर्चस्व है जो अपनी सडी हुई मानसिकता को बाज़ार की ऊंची दुकानों में सजाये रखने का गुर जानते हैं। कह सकते हैं कि महात्मा गांधी की तरह ही पत्रकारिता भी आज महज इस्तमाल की चीज बन कर रह गई है। इसका हाल ठीक वैसा है जैसे घर में खांसता बूढा अपनी ही संतानों से सताया हुआ हो, या उसे बेघर कर दिया गया हो और उसकी विरासत को लूटा-झपटा जा रहा हो। सत्य, ईमानदारी, निष्ठा, समर्पण वाले अति व्यंजन इस शब्द को स्वर्णाक्षर जरूर देते हैं किंतु यह दिखने वाली वह मरिचिका है जिसके आगे

बाल-कहानी परी का प्यार

हिन्दुस्तान का दर्द के पाठकों के लिए आज पेश है मेरे द्वारा रचनाकार पर ११ मार्च २००८ को लिखी गयी यह बाल कहानी,सच कितना अजीब सा लगता है जब सालों पुराना कोई लेख या हमारी रचना हमें फिर से पढने को मिलती है  हम तब भी बच्चे थे और आज भी बच्चे है..तो दोस्तों नजर दाल लीजिये इस रचना पर........... -संजय सेन सागर एक गांव में किसान रहता था जिसका बहुत ही सुखी परिवार था। उसकी पत्नी और आठ सान की बेटी मोहनी बडे आराम से रहती थी। अचानक एक दिन किसान की पत्नी का स्वास्थ्य बिगड़ गया। किसान ने खूब इलाज कराया यहां तक की उसके खेत भी बिक गये पर इलाज में कोई लाभ नहीं हुआ और एक दिन वही हुआ जिसका किसान को डर था। एक दिन किसान की पत्नी का देहांत हो गया। अब तो जैसे किसान के उपर आसमान टूट पड़ा ।अब तो उसे मोहनी की फिक्र होने लगी । दिन भर किसान को दूसरों के खेत में मजदूरी करनी पड़ती थी और रात को स्वयं ही भोजन बनाना पड़ता था। यह सब देखकर मोहनी को बड़ा ही दुख होता था उसे लगने लगा की अब उसे भी काम सीख लेना चाहिए लेकिन उसकी उम्र बहुत कम थी। मोहनी काम सीखने लगी वह बहुत ही परेशान होती थी ।यह सब देखकर एक परी को बहुत ही दया

गीत: मैं नहीं.... संजीव 'सलिल'

गीत: मैं नहीं.... संजीव 'सलिल' * मैं नहीं पीछे हटूँगा, ना चुनौती से डरूँगा. जानता हूँ, समय से पहले न मारे से मरूँगा..... * जूझना ही ज़िंदगी है, बूझना ही बंदगी है. समस्याएँ जटिल हैं, हल सूझना पाबंदगी है. तुम सहायक हो न हो खातिर तुम्हारी मैं लडूँगा. जानता हूँ, समय से पहले न मारे से मरूँगा..... * राह के रोड़े हटाना, मुझे लगता है सुहाना. कोशिशोंका धनी हूँ मैं,  शूल वरकर, फूल तुमपर वार निष्कंटक करूँगा. जानता हूँ, समय से पहले न मारे से मरूँगा..... * जो चला है, वह गिरा है, जो गिरा है, वह उठा है. जो उठा, आगे बढ़ा है- उसी ने कल को गढ़ा है. विगत से आगत तलक अनथक तुम्हारे सँग चलूँगा. जानता हूँ, समय से पहले न मारे से मरूँगा..... *