नव गीत: संजीव 'सलिल' अवध तन, मन राम हो... * आस्था सीता का संशय का दशानन. हरण करता है न तुम चुपचाप हो. बावरी मस्जिद सुनहरा मृग- छलावा. मिटाना इसको कहो क्यों पाप हो? उचित छल को जीत छल से मौन रहना. उचित करना काम पर निष्काम हो. अवध तन, मन राम हो... * दगा के बदले दगा ने दगा पाई. बुराई से निबटती यूँ ही बुराई. चाहते हो तुम मगर संभव न ऐसा- बुराई के हाथ पिटती हो बुराई. जब दिखे अंधेर तब मत देर करना ढेर करना अनय कुछ अंजाम हो. अवध तन, मन राम हो... * किया तुमने वह लगा जो उचित तुमको. ढहाया ढाँचा मिटाया क्रूर भ्रम को. आज फिर संकोच क्यों? निर्द्वंद बोलो- सफल कोशिश करी हरने दीर्घ तम को. सजा या ईनाम का भय-लोभ क्यों हो? फ़िक्र क्यों अनुकूल कुछ या वाम हो? अवध तन, मन राम हो... *