सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ नवगीत आचार्य संजीव 'सलिल' हवा में ठंडक बहुत है... काँपता है गात सारा ठिठुरता सूरज बिचारा. ओस-पाला नाचते हैं- हौसलों को आँकते हैं. युवा में खुंदक बहुत है... गर्मजोशी चुक न पाए, पग उठा जो रुक न पाए. शेष चिंगारी अभी भी- ज्वलित अग्यारी अभी भी. दुआ दुःख-भंजक बहुत है... हवा बर्फीली-विषैली, नफरतों के साथ फैली. भेद मत के सह सकें हँस- एक मन हो रह सकें हँस. स्नेह सुख-वर्धक बहुत है... चिमनियों का धुँआ गंदा सियासत है स्वार्थ-फंदा. उठो! जन-गण को जगाएँ- सृजन की डफली बजाएँ. चुनौती घातक बहुत है... नियामक हम आत्म के हों, उपासक परमात्म के हों. तिमिर में भास्कर प्रखर हों- मौन में वाणी मुखर हों. साधना ऊष्मक बहुत है... divyanarmada.blogspot.com divynarmada@gm