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Showing posts from July 31, 2009

रोज हैं खिलते गोद में तेरी , फूल हजारों ऐसे

जननी भारत माता अंशलाल पंद्रे जननी भारत माता...... तेरी जय जय ,तेरी जय जय तेरी जय जय ,तेरी जय जय रोज हैं खिलते गोद में तेरी , फूल हजारों ऐसे अकबर, गांधी, भगत, जवाहर चांद सितारों जैसे चांद सितारों जैसे जननी भारत माता...... चाहे धर्म कोई भी हो ,हैं सब भाई भाई मां भारत की हैं संताने , है सब में तरुणाई है सब में तरुणाई जननी भारत माता...... उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम की आभा है न्यारी भिन्न भिन्न भाषा औ प्रांतो की शोभा है प्यारी की शोभा है प्यारी जननी भारत माता..... गंगा यमुना ब्रह्मपुत्र और कावेरी का पानी पी हम पानी वाले करते दुश्मन पानी पानी दुश्मन पानी पानी जननी भारत माता...... जननी भारत माता

अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ...........

अच्छा होता हम बच्चे ही रहते .. वो कागज़ कि कश्ती ... वो बारिश का पानी ... कितन अच्छा तो वो बच्चपन का खेलना ...मस्ती भरे दिन थे ..मौजो की थी राते ना कुछ सोचना....न कोई चिंता ... मस्त मौला सा था सब वातावरण अच्छा होता हम बच्चे ही रहते .... क्यों हम बड़े हो गए है .. दुनिया की रीत में खो गए है क्यों हम भी मशीनी हो गए है खो गया है भावनायो का समंदर ... क्यों अपने भी अब बेगाने हो गए है क्यों यहाँ बेगाने अपने हो गए है ........... अच्छा होता हम बच्चे ही रहते .. कम से कम दिल के सचे तो होते अब देखो झूठ से लबालब हो गए है .. चापुलूसी के घने जंगल में गहरे खो गए है भटक गए है काया और माया के जाल में यहाँ आके सब खूबसूरती के दंगल में फंस गए है अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ..... लड़ते झगड़ते पर साथ तो रहते पर अब तो सब्र का पैमाना यू छलकता है किसीकी छोटी सी बात भी नश्तर सी लगती है तोडी सब्र की सारी सीमायें ... हर दोस्त को दुश्मन बनाते चले गए ... अच्छा होता हम बच्चे ही रहते .... खेलते वो खेल जो मन में आता हमारे कम से कम दिलो से तो ना खेलते थे हम .. कभी छिप जाते ...कभी रूठ जाते कम से कम संगी साथी हमह

ग़ज़ल --तेरे बिन ----- डा. श्याम गुप्त

जितना दूर जाता हूँ , उतना पास पाता हूँ। तेरे बिन क्या होता है, तुमको आज बताता हूँ। तेरे गीतों की सरगम , मन-वीणा पर गाता हूँ। कलछा चिमटे चकले पर , सुर लय ताल मिलाता हूँ। तुम्हें भुलाना चाहूँ तो, यादों में उतराता हूँ। गज़लें लिखना चाहूँ तो , काफिया भूल जाता हूँ। तुम भी करते होगे याद, ख़ुद पर ही इतराता हूँ। अबतो आही जाओ 'श्याम, वरना मैं आजाता हूँ॥

गीतिका: ''सलिल''

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ गीतिका आचार्य संजीव 'सलिल' धूल हो या फूल कुछ भी नहीं फजूल. धार में है नाव. सामने है कूल. बात को बेबात दे रहे क्यों तूल? जब-जब चुने उसूल. तब-तब मिले हैं शूल. है अगर इंसान. कर कुछ हसीं भूल. तज फ़िक्र, हो बेफिक्र. सुख-स्वप्न में भी झूल. वह फूलता 'सलिल' मजबूत जिसका मूल. *********************