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Showing posts from July 15, 2009

नवगीत

गीत आचार्य संजीव 'सलिल' आपा-धापी, दौड़ा-भागी, हाय! यही अब रही जिंदगी... राहु-केतु से रवि-शशि हैराँ। असत सत्य को करे परेशां। दाना पर हावी हैं नादां- है बनावटी, देव-बंदगी... सदियाँ भोगें पलों की खता। नातों से है नेह लापता। मन को तन ही रहा है सता। घर-घर व्यापी है दरिंदगी... ***********

बेजमीर पत्रकारों को कुरबान अली की सलाह

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी 11 जुलाई को उदयन शर्मा के जन्म दिन पर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हॉल में एक परिचर्चा 'लोकसभा के चुनाव और मीडिया को सबक' विषय पर आयोजित की गयी थी। परिचर्चा का आयोजन करने वाले, वक्ता और श्रोता मीडिया से ही जुड़े लोग थे। परिचर्चा में मीडिया को कसौटी पर कसने की कोशिश की गयी । परिचर्चा में प्रभाष जोशी के उन इल्ज+ामात को विस्तार मिला जिनमें उन्होंने कहा था कि हालिया लोकसभा चुनाव में अखबारों ने पैसे लेकर प्रत्याशियों के फेवर में खबरें छापी हैं। हालांकि परिचर्चा में किसी भी वक्ता ने इतनी हिम्मत नहीं दिखाई कि उन मीडिया हाउस के नाम लें, जिन्होंने पैसे लेकर खबरें छापने जैसा घिनावना काम किया था। बी4एम के यशवंत सिंह ने जरुर दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर का नाम लेकर कहा कि इन दोनों अखबारों ने खुले आम ये काम किया। परिचर्चा के शुरु में मुख्य अतिथि केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपित सिब्बल ने अपने सम्बोधन में यह कहा कि मीडिया के कुछ छापने अथवा छापने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। कपिल सिब्बल की इस बात का किसी पत्रकार ने विरोध नहीं किया। उनके जाने के बाद कुरबान अली

लो क सं घ र्ष !: औसत का खेल

मुझे इस बात का जरा भी भान न था कि मैं अपने लिए एक मोटरसाइकल नहीं, एक नई मुसीबत मोल ले रहा हूं। खैर, जो होना था सो हो गया। यह हम जैसे आम आदमी का मूलमंत्र है। मोटरसाइकल मैंने अपनी सहुलियत के लिए ली थी। कही आने-जाने में आसानी होती। समय की बचत सो अलग। मोटरसाइकल पर बैठ कर मेरी गतिशीलता में वृद्धि होती। इन सब बातों को मद्देनजर रखते हुए, मैंने एक मोटसाइकल खरीदी। अभी उसे ले कर घर आता नहीं हूं कि मेरे पड़ोसी पूछ उठाते हैं,‘‘ कितने का एवरेज कंपनी वाले क्लेम कर रहे है।’’ पड़ोसी का मतलब गाड़ी के माइलेज से था। उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा,‘‘ कंपनी वाले जितना बताए उससे दस-बीस किलोमीटर कम मान कर चलना चाहिए, भाईसाहब।’’ पहले दिन से ही यह सवाल ‘ क्या एवरेज दे रही है!’ मेरे पीछे लग गया। मैं जहाँ जाता, यह सवाल मुझसे टकरा जाता। कभी सीधे-सीधे , तो कभी एक लंबी भूमिका के बाद। कभी यह मेरी गाड़ी के पीछे-पीछे आता, तो कभी मुझसे पहले ही पहुंच जाता। गाड़ी लेने के बाद शायद ही कोई दिन ऐसा बीता हो जब यह सवाल ‘ क्या एवरेज दे रही है ’ मुझ पर न दागा गया हो। मेरा जवाब सिर्फ इतना होता,‘‘पता नहीं’’। मेरा जवाब सुनकर लोग मु

संपादकीयः फैसला तो हुआ पर न्याय नहीं

प्रोफेसर एचएस सभरवाल की हत्या के आरोप में धरे गए सभी छह आरोपी छूट गए हैं। नागपुर की अदालत ने उन्हें बरी करते हुए अभियोग पक्ष पर कड़ी टिप्पणी की और कहा कि पुलिस प्रशासन अपने आरोप साबित करने में बुरी तरह असफल हुआ। सनद रहे कि प्रोफेसर सभरवाल के परिजनों ने उज्जैन में हुई इस घटना का मुकदमा मध्य प्रदेश से बाहर लड़े जाने की याचना की थी। चूंकि आरोपी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े थे, जो भाजपा से जुड़ी है और जिसकी सरकार मध्य प्रदेश में है, सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि उसी प्रदेश में केस रहने से न्याय के निष्पादन में बाधा आ सकती है और यहां तक कि पुलिस पर दबाव बनाया जा सकता है। इसलिए केस को महाराष्ट्र के नागपुर भेज दिया गया। पर क्या न्याय हो पाया? इसका जवाब है नहीं। यह इसलिए नहीं कि आरोपी बरी हो गए, बल्कि इसलिए कि अपने आदेश के साथ की टिप्पणी में न्यायालय ने ही अपने न्याय पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। अब दिवंगत प्रोफेसर के पुत्र ने कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट से न्याय की गुहार लगाएंगे। पर सवाल यह है कि अगर इतने हाई प्रोफाइल केस में राज्य बदलने के बावजूद न्याय नहीं मिलता, तो उन लाखों मुकदमों का क्य