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Showing posts from September 27, 2009

लो क सं घ र्ष !: कर्मयोग की फिलॉसफी

" उनका पूरा कर्मयोग सरकारी स्कीमों की फिलॉसफी पर टिका था । मुर्गीपालन के लिए ग्रांट मिलने का नियम बना तो उन्होंने मुर्गियां पालने का एलान कर दिया । एक दिन उन्होंने कहा कि जाती - पाँति बिलकुल बेकार की चीज है और हर बाभन और चमार एक है । यह उन्होंने इसलिए कहा की चमड़ा उद्योग की ग्रांट मिलनेवाली थी । चमार देखते ही रह गए और उन्होंने चमड़ा कमाने की ग्रांट लेकर अपने चमड़े को ज्यादा चिकना बनाने में खर्च भी कर डाली ... उनका ज्ञान विशद था । ग्रांट या कर्ज देनेवाली किसी नई स्कीम के बारे में योजना आयोग के सोचने भर की देरी थी , वे उसके बारे में सब कुछ जान जाते । " - श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी से

ग़ज़ल--पानी चाँद पर

चाँद पर पानी ---डॉ श्याम गुप्त की ग़ज़ल----- मर गया जब से मनुज की आँख का पानी | हर कुए तालाब नद से चुक गया पानी | उसने पानी को किया बरबाद कुछ ऐसे, ढूँढता फ़िर रहगया हर राह पर पानी | उसने पानी का नहीं पानी रखा कोई , हर सुबह और शाम अब वह ढूँढता पानी | पानी-पानी होगया हर शख्स पानी के बिना, खोजने फ़िर चलदिया वह चाँद पर पानी | कुछ तसल्ली तो हुई,इक बूँद पानी मिलगया , पर न 'पानी मांग जाए' , चाँद का पानी | श्याम' पानी की व्यथा समझे जो पानीदार हो , 'पानी-पानी ' होरहा हर आँख का पानी || प्रस्तुतकर्ता Dr. shyam gupta

लो क सं घ र्ष !: मोहित असुरो को कर ले...

अरी ! युक्ति तू शाश्वत , मोहिनी रूप फिर धर ले । अमृत देवो को देकर , मोहित असुरो को कर ले ॥ बुद्धि कभी , चातुर्य कभी , विधि तू कौशल्य निपुणता । युग - तपन शांत करने को , है कैसी आज विवशता ॥ कल्याणी शक्ति अमर ते , निज आशा वि्स्तृत कर दो , वातायन स्वस्ति विखेरे , महिमामय करुणा वर दो ॥ डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ' राही '