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Showing posts from May 3, 2009

Loksangharsha: पहचाना गया है ब्राहमणवाद ..

श्रीमान जी , मेरा उद्देश्य किसी जाति को अपमानित करने का नही है । भारतीय समाज में जाति एक महत्वपूर्ण कारक है और जाति के आधार पर लोगो को अपमानित करने का कार्य हुआ है और हो रहा है राहुल सांस्कृतायन जी की महत्वपूर्ण किताब वोल्गा से गंगा है जिसमें मानव सभ्यता के विकास के क्रम को अच्छे तरीके से समझाया गया है मानव सभ्यता के विकास के क्रम में कर्मफल का सिद्धांत भी आया है और मानव ने कब क्या और किस तरीके से मानव के शोषण के औजार किए है वह महत्वपूर्ण है श्री भगौतीचरण वर्मा जी ने चित्रलेखा में पाप और पुण्य क्या है उसको चित्रित किया है उसके ऊपर भी गहनता के साथ विचार करने की आवश्यकता है । श्री मुद्रराक्षास ने धर्म का पुर्नपाठ विषयक पुस्तक में ब्रहामणवाद के उदगम स्थल से ले के आज तक मानव के शोषण के विभिन्न स्वरूपों की चर्चा की है जिसके ऊपर भी विचार करने की आवश्यकता है । क्या यह सच नही है की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिन ब्राहमणों ने खेती करनी शुरू कर दी और हल का मूठ पकड़ कर खेत जोते उन्हें जाति से निकल दिया गया और वह त्

ग़ज़ल

ना ज़मीन, ना सितारे, ना चाँद, ना रात चाहिए, दिल मे मेरे, बसने वाला किसी दोस्त का प्यार चाहिए, ना दुआ, ना खुदा, ना हाथों मे कोई तलवार चाहिए, मुसीबत मे किसी एक प्यारे साथी का हाथों मे हाथ चाहिए, कहूँ ना मै कुछ, समझ जाए वो सब कुछ, दिल मे उस के, अपने लिए ऐसे जज़्बात चाहिए, उस दोस्त के चोट लगने पर हम भी दो आँसू बहाने का हक़ रखें, और हमारे उन आँसुओं को पोंछने वाला उसी का रूमाल चाहिए, मैं तो तैयार हूँ हर तूफान को तैर कर पार करने के लिए, बस साहिल पर इन्तज़ार करता हुआ एक सच्चा दिलदार चाहिए, उलझ सी जाती है ज़िन्दगी की किश्ती दुनिया की बीच मँझदार मे, इस भँवर से पार उतारने के लिए किसी के नाम की पतवार चाहिए, अकेले कोई भी सफर काटना मुश्किल हो जाता है, मुझे भी इस लम्बे रास्ते पर एक अदद हमसफर चाहिए, यूँ तो 'मित्र' का तमग़ा अपने नाम के साथ लगा कर घूमता हूँ, पर कोई, जो कहे सच्चे मन से अपना दोस्त, ऐसा एक दोस्त चाहिए

हाँ तो भाई साहब ...ब्राहमणवाद को पहचानिये ...

टिप्पणी पे की गयी टिपण्णी , पर टिप्पणी ................................. आपका कहना लाज़मी है .. मैंने तो पहले हीं ज़िक्र कर दिया की सवाल अगर ब्राह्मणों ने खड़ा किया , या ऐसी मानसिकता ने , तो ज़वाब भी तो वहीँ बने। जहाँ तक बात है साँप की दूध पीने की , तो वह सत्य है सभी के लिए ..... साँप ब्राह्मणों के घर में हीं दूध नही पीते । पता नही आप किस आधार पर गाँधी की हत्या , इंदिरा और राजीव की हत्या ब्राह्मण्वादि सोच का प्रतिफल मानते हैं। अगर सच में ऐसा है तो आपका विश्लेषण जग जाहिर होना चाहिए। मुझे तो लगता है की , गाँधी की हत्या कर गाँधी को महान बना दिया गया । वरना उनके काबिलियत पे संदेह बरक़रार रह जाता । गाँधी तो स्वयं , हार चुके थे , उस निहत्थे बुढे गाँधी पे गोली खर्च करने की क्या आवश्यकता थी । उनकी सजा उनकी ज़िन्दगी थी । गाँधी हमेशा हीं अंग्रेजियत के दुश्मन थे अंग्रेजों के नहीं , और इसके पलट में नेहरू अंग्रेजों के दुश्मन थे , अंग्रेजि़त के नही

Loksangharsha: http://yaadonkaaaina.blogspot.com/2009/05/blog-post_2546.html#comments जवाब

श्रीमानजी , बड़े सम्मान के साथ कहना चाहूँगा की गाय घास खाकर दूध देती है यह सत्य लेकिन साँप दूध पीता है यह ब्रहाम्णवादी भ्रम है और असत्य है । इतिहास से कडुवाहट नही पैदा होती है सबक लिया जाता है ।श्री मुद्रारक्षस जी इस देश के प्रतिष्ठित साहित्यकार है और इस देश के शुभचिन्तक है और जहाँ तक मेरी जानकारी है लेख के लेखक जाति व्यवस्था के तहत दलित नही है और न ही मै ही दलित हूँ लेकिन यह भी सत्य है की जिस थाली में कुत्ता और सुवर खा लिए वह थाली नापाक नही होती है लेकिन भारतीय समाज व्यवस्था में दलित किसी थाली में खा ले तो वह थाली फेक दी जाती रही है । यह विषय यथार्थ का विषय है और इस पर गंभीर चिंतन और मनन की जरुरत है क्योंकि पहले ब्रिटिश सम्रज्यवादियों ने इसी असंतोष का लाभ उठाया और देश गुलाम हुआ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एजेंट राजा , राजवाडे, महाराजा, जमींदार, तालुकदार, तथा अभिजात वर्ग के लोग थे और आज भी अमेरिकन साम्राज्यवाद इस देश को गुलाम बनाना चाहता है ।उसकी तरफदारी अभिजात्य वर्ग के ही

Loksangharsha: घर तुम्हारा नहीं..

चाहतो को मिटाता रहा आदमी । ख़ुद से हो दूर होता रहा आदमी । स्वर्ग की लालसा में इधर से उधर - पाप के बीज बोता रहा आदमी ॥ ये धरा वो गगन कुछ तुम्हारा नही । अग्नि , जल , पवन कुछ तुम्हारा नही । बंद पलकों को बस यही कह गया - एक राही हो घर तुम्हारा नही ॥ ईश की वंदना में न होता असर । दर्द के गीत होते सदा हम सफर । जिंदगी श्राप बनकर कड़कती यहाँ - मौत न चूमती जिंदगी के अधर ॥ नैन का भौं भरे लालिमा से अधर । केश बिखरे सजे आलिहो झूले डगर । आप इतना सँवर कर न देखे उसे - लग न जाए कहीं आईने की नजर ॥ - डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ' राही '

ब्राह्मण्वादि होना तो जीने की अदा है, तबियत हो तो अपना लीजिये

सुमन जी के लेख " आजाद भारत में ब्राहमणवाद का कफस " पढ़ा। लेख को लेकर काफी प्रतिक्रिया हुई और यह एक गंभीर चर्चा का विषय बन गया ... ऐसा कह कर मैं इस मुद्दे को वो तवज्जो नही देना चाहता। पहले मैं सुमन जी से ये कहना चाहता हूँ की , अछे और बुरे का होना , किसी जाती , धर्मं या संप्रदाय की बपौती नही है। पर इस बात को कुछ हद तक स्वीकार जा सकता है की मानवीय गुण और धर्म संस्कार से प्रभावित अवश्य होते हैं । अब जो जिस लायक है , उसे उसका अधिकार तो मिलना चाहिए । पूजा सूर्य की होती है , सितारों की नही ! पूजी तुलसी जाती है , बनोल नही ! कहने का तात्पर्य ये है की , गुण - और गुणी सर्वदा पूजनीय होतें हैं। इससे पहले की आगे की बात की जाए , सुमन जी के लेख पर नज़र डालें ... http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2009/05/loksangharsha-1.html पहले मैं " ब्राहमण " शब्द के साथ किसी " वाद " जैसी निकृष्ट शब्दावली के प्रयोग का पक्षधर नही हूँ