हमेशा की तरह आज का अखबार भी अपनी पिछली सुर्ख़ियों से आगे निकलने की होड़ करता मिला, जैसे ध्रितराष्ट्र को हर बीते कल से ज्यादा भयावह खबरें देने को शापित संजय. देश के हर कोने से आती सोच और कल्पना से परे अपराधों के ख़बरें. बहुत बेबस महसूस करता हूँ अपने-आप को, क्यूंकि जहाँ से मैं देख रहा हूँ, वहां से यह स्थिति सुधरने वाली नहीं दिखती, पिछले साल भर में नौकरी के दौरान मैंने यह निष्कर्ष निकाला है (यहाँ मुझे वर्त्तमान और आने वाली पीढ़ी को देखने और समझने का मौका मिला ). नेता, नौकरशाह, पुलिस, माफिया, गुंन्डे, मवाली, मुहल्लेवाला, नुक्कड़ वाला, पडोसी, हम-तुम, ये -वो वगैरह-वगैरह ये सब सिर्फ उदहारण मात्र है, हमने पूरे तालाब में ही भंग घोल दी है, ये सब इंसान ही हैं और समाज के किसी न किसी संभ्रांत परिवार से संबध रखते हैं, आज के दौर में सामाजिक ताने-बाने को बुनने वाली ये परिवार नाम वाली इकाई ही भ्रस्ट हो चुकी हैं, इसकी शुरुआत पिछली पीढ़ी ने कई दशक पहले की थी जिसका परिणाम आज के पतित नागरिकों के रूप में सामने आ रहा है. हमने अपने बच्चों को स्वस्थ और अच्छे संस्कार देने के बजाय किसी भी तरह धनी बनने