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Showing posts from April 14, 2010

लो क सं घ र्ष !: कुत्ता

मुझे जानवरों का कोई शौक नहीं है और न ही जानवरों में कोई दिलचस्पी। वे इसलिए कि जानवर पालने के लिए जानवर बनना जरूरी है, चाहे वह थोड़ी ही देर के लिए। यह जरूर है कि जानवरों से पैदा होने वाली चीज़ का इस्तेमाल करता हूं। जानवरों से एक सीख जरूर मिली है कि एक जानवर दूसरे जानवर को कभी कुछ देता नहीं है, शायद इसीलिए मैथिली शरण गुप्त ने लिखा हैः यही पशु प्रवृत्ति है कि आप-आप ही चरे, मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे। आज अगर मैथिलीशरण गुप्त जीवित होते तो हर पल जीवित रहते हुए मरते रहते, वो इसलिए कि मनुष्य ने भी पशुता को चरितार्थ कर लिया है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को खाते हुए नहीं देख पाता अच्छा खाना देखकर चाहता है कि सामने वाले का खाना ऐन केन प्रकारेण उसकी प्लेट में आ जाए। बिना परिश्रम के वह धनवान बन जाए। अपनी सेवा के लिए सेवक भी रखे और सेवा के बदले सेवक को कुछ न देना पड़े तो फिर कहना क्या। लगता है कि विषय से भटक गया हूं मैं। लिखने बैठा कुत्ते के विषय में और लिख डाला पशु और मनुष्य के विषय में और शायद मैंने ऐसा इसलिए किया कि अपन आदत के अनुसार मैंने कभी कुत्त

हे सूरज की किरणों..

हे सूरज की किरणों ॥ बड़ी तुम महान हो॥ रोग द्वेष दूर करती॥ वेदों की ज्ञान हो॥ हे सूरज की किरणों ॥ बड़ी तुम महान हो॥ तुम्ही हो दवाई॥ तुम्ही हो वेवायी॥ तुम्ही तो मेरे जीवन पे॥ मेहर वान हो॥ आती जब आलस ॥ हवाए हिलाती॥ शक्ति जिंदगीमें॥ हंस के झुलाती॥ तुम्ही मेरे जीवन के॥ शब्दों के सार हो॥