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Showing posts from March 7, 2009

मांसाहार और मानव

उक्त विषय पर चल रहे विमर्श में दो एक बातें और जोड़ना चाहूंगा ।   इन बिंदुओं को भाई सलीम ने अपने विद्वतापूर्ण आलेखों में बार - बार छुआ है अतः इस बारे में भ्रम निवारण हो जाये तो बेहतर ही होगा !   भाई सलीम का मानना है कि ईश्वर ने मनुष्यों को जिस प्रकार के दांत दिये हैं वह मांसाहार के लिये उपयुक्त हैं !  यदि मांसाहार मनुष्य के लिये जायज़ न होता तो मनुष्यों को नुकीले दांत क्यों दिये जाते।   सलीम के इस तर्क को पढ़ने के बाद मैने अपने और अपने निकट मौजूद सभी लोगों के दांत चेक किये।   मुझे एक भी व्यक्ति का जबाड़ा कुत्ते , बिल्ली या शेर जैसा नहीं मिला । जो दो - तीन दांत कुछ नुकीले पाये वह तो रोटी काटने के लिये भी जरूरी हैं।   यदि मनुष्य के दांतों में उतना नुकीलापन भी न रहे फिर तो वह सिर्फ दाल पियेगा या हलुआ खायेगा , रोटी चबानी तो उसके बस की बात रहेगी नहीं।     यदि यह चेक करना हो कि हमारे दांत मांस खाने के लिये बने हैं या नहीं तो हमें बेल्ट , पर्स या जूते चबा कर देखने चाहियें ।   कम से कम मेरे या मेरे मित्रों , पड़ोसियों के , सहकर्मियों के दांत तो इतने नुकीले नहीं हैं कि चमड़ा चीर - फ

आचार्य संजीव 'सलिल' जी की रचना

आचार्य संजीव 'सलिल' स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार. किंशुक कुसुम विहंस रहे, या दहके अंगार? पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार होश खो राह है पवन, लख वनश्री-श्रृंगार. महका महुआ देखकर, सहसा बहका प्यार. मधुशाला जाए बिना, सिर पर नशा सवार. नहीं निशाना चूकती. पञ्चशरों की मार. पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार. नैन मिले, झुक, उठ, लड़े, करने को इंकार. देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार. मैं-तुम, यह-वह ही नहीं, बौराया संसार. फागुन में मिलते गले. सब को हुआ खुमार. ढोलक, टिमकी, मंजीरा, करें ठुमक इसरार. फगुनौटी में मस्त हो, नाचो-गाओ यार. घर-आँगन,तन धो, लिया तुमने रूप निखार. अंतर्मन का मेल भी, गुपचुप कभी बुहार. बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार. स्नेह-साधना कर 'सलिल', श्वासें रखो संवार. आगे यहाँ

...और यह रहा हिंदुस्तान के दर्द का 400वां पोस्ट !!!

...और यह रहा हिंदुस्तान के दर्द का 400वां पोस्ट !!! बधाई हो !!! और मुझे इसे पोस्ट करने का मौक़ा मिला !   मैं सलीम खान, स्वच्छ सदेश: हिन्दोस्तान की आवाज़ से |

निराशा (नाउम्मीदी) मौत के बराबर है!

" निराशा (नाउम्मीदी) मौत के बराबर है, आशा (उम्मीद) जीवन (ज़िन्दगी) है बल्कि उम्मीद ही ज़िन्दगी है जहाँ ज़िन्दगी है वहां उम्मीद है जहाँ उम्मीद नही वहां ज़िन्दगी भी नहीं इसलिए हमेशा अपने मन में उम्मीद की लौ जलाकर रखना चाहिए  " एक बार एक सहाबी* के पास एक इन्सान आया वह बहुत ग़मगीन था, निराश था उसने सहाबी से कहा- वह मरना चाहता है, और खुद्कुशी कर लेगा इस ज़िन्दगी से वह नाउम्मीद हो गया है उसने अपनी बात कही और रो पड़ा उसका सोचना था की उसे वो रोकेंगे या उसको किसी समस्या का समाधान करने को उद्धत करेंगे, मगर उसे सहाबी की बात सुनकर झटका लगा उसकी स्थिति देख कर सहाबी ने कहा- "तुम्हारा मर जाना ही बेहतर है, जो लोग निराशा (नाउम्मीदी) में जीया करते हैं, उनका जीवन मौत से भी बदतर है " सहाबी की बात से वह दुखी हो गया, कहाँ तो वह सांत्वना की बात सुनने आया था कहाँ सहाबी ने उसे फटकारना शुरू कर दिया उन्होंने कहा- "आशावाद ही निर्माता है आशावाद ही किसी इन्सान का ज़हनी (मानसिक) सूर्योदय है इससे ज़िन्दगी बनती है यानि जीवन का निर्माण होता है, आशावाद से तमाम मानसिक योग्यताओं का जन्म होता है, आ

दिन मे स्कूल वाली, रात में धंधे वाली,कमाई लाखों

लंदन। 15 साल की एक स्कूली लड़की महंगी वेश्या के रूप में लगभग एक लाख पाउंड सालाना कमा रही थी। यह किशोरी दिन में तो रूकूल जाती थी पढ़ने के लिए लेकिन किसी के साथ रात बिताने के लिए वो सैकड़ों पाउंड वसूल करती थी। लड़की का नाम उसकी उम्र की वजह से नहीं बताया गया है लेकिन समझा जाता है कि वह ग्राहकों को महिला साथी उपलब्‍ध कराने वाली किसी एस्कॉर्ट एजेंसी के लिए काम करती थी। उसने एस्कॉर्ट एजेंसी से झूट बोलकर अपनी अपनी उम्र 18 साल बताई थी क्‍योंकि वह अपनी उम्र से बड़ी दिखाई देती है। वह रात के वक्‍त और सप्ताहांत में काम करके हर हफ्ते कम से कम 1700 पाउंड कमा रही थी। उसके दोहरे जीवन का भांडा उसकी एक टीचर को शक होने पर खुला। टीचर ने स्कूल बैग की तलाशी ली तो उसमें कंडोम, उसके दलाल का कार्ड और उस एजेंसी का विवरण भी मिला जिसके लिए वह काम करती थी। इस बारे में स्कूल ने तुरंत पुलिस को सूचना दी और उसके मां-बाप के घर की तलाशी में उसके द्वारा छिपा कर रखे गए 8060 पाउंड मिले। पुलिस अधिकारियों का मानना है कि उसे दो माह में 14,000 पाउंड मिले थे लेकिन बाकी 6000 पाउंड बरामद नहीं हुए हैं। पहले तो बाल-वेश्यावृत्ति को प्रो

क्या भगवान रजनीश ईश्वर है?

कुछ लोग कहते है कि भगवान रजनीश या ओशो रजनीश परमशक्तिसंपन्न ईश्वर है| कृपया मेरे शब्दों पर ध्यान दीजिये मैंने कहा कि "कुछ लोग कहते है कि भगवान रजनीश या ओशो रजनीश परमशक्तिसंपन्न ईश्वर है !???"  मैंने पीस टी वी पर प्रश्नोत्तर काल में देखा था कि एक हिन्दू सज्जन ने कहा कि हिन्दू भगवान रजनीश को एक ईश्वर के रूप में नहीं पूजते हैं| मुझे ज्ञात हुआ कि हिन्दू भाई भगवान रजनीश को ईश्वर के रूप में नहीं देखते I  लेकिन रजनीश के मानने वाले - समर्थको ने उनकी फिलोसोफी और आइडियोलोगी को बदल दिया है, लेकिन यह भी सत्य है कि उनके मानने वाले किसी धर्म विशेष के नहीं हैं बल्कि अलग अलग धर्मों के हैं | और रजनीश के कुछ अनुनायी यह कहते है कि रजनीश बेजोड़ और सर्वोपरि है और मात्र एक, केवल एक ... one and only, और वह ईश्वर हैं! मैं इस बात को आगे बढ़ता हूँ - कुरान के सुरः इखलास से और वेदों के अनुसार इसको जाँचता हूँ : ईश्वर के अंतिम ग्रन्थ कुरान में सुरः इखलास में लिखा है कि -   1- कहो! अल्लाह यकता है| (अर्थात ईश्वर एक है|) 2- अल्लाह निरपेक्ष और सर्वाधार है|  3- न वह जनिता है और न जन्य |  4- और ना उसका कोई सम

मेरे मुहताज आंसू छलक जायेंगे!

की एक पेशकश नाम उनका जहाँ भी लिया जायेगा ज़िक्र उनका जहाँ भी किया जायेगा नूर ही नूर सीनों में भर जायेगा सारी महफ़िल में जलवे चमक जायेंगे ऐ मोहब्बत के मारे, खुदा के लिए सफरे उल्फत मुझको यु न सुना बात बढ़ जायेगी दिल तड़प जायेगा मेरे मुहताज आंसू छलक जायेंगे उनकी जश्ने करम को है इसकी खबर इस मुसाफिर को है कितना शौक़ ऐ सफ़र हमको इक बार जब भी इजाज़त मिली हम भी उस के दर तक पहुँच जायेंगे फासलों से तक़ल्लुफ़ है उनको अगर हम भी बेबस नहीं, बेसहारा नहीं खुद उन्ही को पुकारेंगे हम दूर से राह में अगर पैर थक जायेंगे हम शहर में तनहा निकल जायेंगे और गलियों में क़सदन* भटक जायेंगे हम वहां जाके वापस नहीं आयेंगे ढून्ते-ढून्ते लोग थक जाएँगे जैसे ही उनका आशियाँ नज़र आएगा दिल का आलम ऐसे बदल जायेगा हसने हँसाने की फुर्सत मिलेगी किसे खुद ही होंटों से मुस्कान टपक जाएँगी * जानबूझ कर

फिर मचल उठे अल्फाज़ आतंकवाद के खात्मे को

फिर मचल पड़ें है अल्फाज़ आतंकवाद के विरोध को,फिर छेड़ दी है हमने ज़ंग आतंकवाद के खात्मे को तो दोस्तों दिल मे दबे जोश को बाहर निकालिए और रखिये अपनी बात इस मंच पर,क्योंकि यह हमारी और हमारे देश की सुरक्षा का सवाल है ! ''हिन्दुस्तान का दर्द''द्वारा आयोजित बहस मे एक बार फिर हम हाजिर है आचार्य संजीव 'सलिल' की एक रचना लेकर !तो पढिये इस रचना को और दीजिये अपनी राय! अबकी बार होली में. करो आतंकियों पर वार अबकी बार होली में. न उनको मिल सके घर-द्वार अबकी बार होली में. बना तोपोंकी पिचकारी चलाओ यार अब जी भर. निशाना चूक न पाए, रहो गुलज़ार होली में. बहुत की शांति की बातें, लगाओ अब उन्हें लातें. न कर पायें घातें कोई अबकी बार होली में. पिलाओ भांग उनको फिर नचाओ भांगडा जी भर. कहो बम चला कर बम, दोस्त अबकी बार होली में. छिपे जो पाक में नापाक हरकत कर रहे जी भर. करो बस सूपड़ा ही साफ़ अब की बार होली में. न मानें देव लातों के कभी बातों से सच मानो. चलो नहले पे दहला यार अबकी बार होली में. जहाँ भी छिपे हैं वे, जा वहीं पर खून की होली. चलो खेलें 'सलिल' मिल साथ अबकी बार होली में. जहाँ

रोहित जी की कविता - ''खो देना चाहती हूँ तुम्हें''

अब हम कलम का सिपाही कविता प्रतियोगिता के इस क्रम में जो कविता प्रकाशित कर रहे है उसे लिखा है रोहित जी ने ! हम रोहित जी को हार्दिक बधाई देते है और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते है ! आप सभी से आग्रह है की इस कविता पर अपनी राय दें ! खो देना चहती हूँ तुम्हें.. सही है कि तुम चले गये, दूर अब मुझसे हो गये इतने वक़्त से भी कहाँ करीब थे, पर अब फाँसले सदा के लिए हो गये बात करने का तुमसे मन नहीं, कोई जवाब तुम्हारे खयाल का देना नहीं ना तुमसे कोई रिश्ता, ना अब कोई और चाह रही काश की तुम बीते दिनों से भी मिट जाओ, तुम्हारी यादें इस कोहरे में कहीं गुम जायें काश कि तुम्हारा नाम मुझे फिर याद न आये, ये याद रहे कि तुम मेरे कोई नहीं जो हो तुम मेरे कोई नहीं तो फिर भी क्यूं याद करती हूँ ये कह कर कि तुम मेरे 'कोई नही' चले जाओ तुम मेरे शब्दों से, ख्यालों से, इस वक्ये के बाद तो तुम जा चुके हो मेरे सपनों से भी नाम लेते ही साँसों में अब भी हलचल सी क्यूँ होती है क्यूँ किसी बात की आशा अब भी रहती है हाथों से तुम्हें छिटकना चाहती हूँ फिर भी एहसास छूटता क्यूँ नहीं चलते हुये गिरती हूँ तो आज भी क्यूँ तुम्हारा ह

अमर उजाला को पोस्ट छापने हेतु धन्यवाद !

समाचार पत्र खुद अपनी ओर से आपके लेखन को नोटिस करें और प्रकाशित करने लगें तो निश्चय ही अच्छा लगता है। पिछले सप्ताह ही मेरे एक मित्र ने मुझे बधाई दी कि दैनिक अमर उजाला ने मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित पोस्ट को जस-का-तस प्रकाशित कर दिया है। मैने तारीख जाननी चाही तो वह बोला - लगभग दस दिन पहले! मैं एक पब्लिक लायब्रेरी में गया जिसमें मैं पहले कभी नहीं गया था , बेतरतीब ढंग से पड़े अखवारों के ढेर में से अमर उजाला ढूंढे। जब खोज अन्ततः सफल हुई तो वहां व्यवस्थापक महोदय से प्रार्थना की कि उस पृष्ठ को ले जाने की अनुमति दें। उन्होंने कारण पूछा तो उस पृष्ठ पर प्रकाशित अपनी पोस्ट उनको दिखाई। पूरा आलेख पढ़ने के बाद उन्होंने बधाई दी और अखवार ले जाने की सहर्ष अनुमति दे दी!   Sushant K. Singhal website : www.sushantsinghal.com Blog :   www.sushantsinghal.blogspot.com email :  singhal.sushant@gmail.com