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Showing posts from September 28, 2009

लो क सं घ र्ष !: चिर मौन हो गई भाषा...

द्वयता से क्षिति का रज कण , अभिशप्त ग्रहण दिनकर सा । कोरे षृष्टों पर कालिख , ज्यों अंकित कलंक हिमकर सा ॥ सम्पूर्ण शून्य को विषमय , करता है अहम् मनुज का । दर्शन सतरंगी कुण्ठित , निष्पादन भाव दनुज का ॥ सरिता आँचल में झरने , अम्बुधि संगम लघु आशा । जीवन , जीवन - घन संचित , चिर मौन हो गई भाषा ॥ - डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ' राही '

डा श्याम गुप्त की कविता--प्लास्टिकासुर----

पंडित जी ने पत्रा पढा, और- गणना करके बताया, जजमान!,प्रभु के , नये अवतार का समय है आया । सुनकर, छोटी बिटिया बोली, उसनेअपनी जिग्यासा की पिटारी यूं खोली; महाराज़, हमतो बडों से यही सुनते आये हैं, बचपन से यही गुनते आये हैं, कि-- प्रिथ्वी पर जब कोई असुर उत्पन्न होता है, तो वह,ब्रह्मा,विष्णु या शिव-शम्भू के, वरदान से ही सम्पन्न होता है। हमें तो नहीं दिखता कोई असुर आज, फ़िर अवतार की क्या आवश्यकता है, महाराज? पन्डित जी सुनकर हड्बडाये, कसमसाये, पत्रा बंद करके मन ही मन बुद बुदाये, फ़िर,उत्तरीय कंधे पर डाल कर मुस्कुराये; बोले- सच है बिटिया, यही तो होता है, असुर, देव,दनुज़,नर,गन्धर्व की- अति सुखाभिलाषा से ही उत्पन्न होता है। प्रारम्भ में लोग ,उसके कौतुक को, बाल-लीला समझकर प्रसन्न होते हैं। युवावस्था मेंउसके आकर्षण में बंधकर, उसे और प्रश्रय देते हैं। वही जब प्रौढ होकर दुख देता है ,तो- अपनी करनी को रोते हैं आज भी मौजूद हैं अनेकों असुर, जिनमें सबसे भयावह है- " प्लास्टिकासुर ", प्लास्टिक जिसने कैसे-कैसे सपने दिखाये थे, दुनियां के कोने-कोने के लोग भरमाये थे। बही बन गया है आज- पर्यावरण का नासूर