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Showing posts from April 20, 2009

चिटठा-लेखन तथा अंतर्जाल पत्रकारिता : द्विदिवसीय कार्यशाला

'व्यष्टि से समष्टि तक वही पहुंचे जो सर्व हितकारी हो'-- संजीव सलिल जबलपुर, १९ अप्रैल २००९. ''चिटठा लेखन वैयक्तिक अनुभूतियों की सार्वजानिक अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं है, यह निजता के पिंजरे में क़ैद सत्य को व्यष्टि से समष्टि तक पहुँचने का उपक्रम भी है. एक से अनेक तक वही जाने योग्य है जो 'सत्य-शिव-सुन्दर' हो, जिसे पाकर 'सत-चित-आनंद' की प्रतीति हो. हमारी दैनन्दिनी अंतर्मन की व्यथा के प्रगटीकरण के लिए उपयुक्त थी चूंकि उसमें अभिव्यक्त कथ्य और तथ्य तब तक गुप्त रहते थे जब तक लेखक चाहे किन्तु चिटठा में लिखा गया हर कथ्य तत्काल सार्वजानिक हो जाता है, इसलिए यहाँ तथ्य, भाषा, शैली तथा उससे उत्पन्न प्रभावों के प्रति सचेत रहना अनिवार्य है. अंतर्जाल ने वस्तुतः सकल विश्व को विश्वैक नीडं तथा वसुधैव कुटुम्बकम की वैदिक अवधारणा के अनुरूप 'ग्लोबल विलेज' बना दिया है. इन माध्यमों से लगी चिंगारी क्षण मात्र में महाज्वाला बन सकती है, यह विदित हो तो इनसे जुड़ने के अस्त ही एक उत्तरदायित्व का बोध होगा. जन-मन-रंजन करने के समर्थ माध्यम होने पर भी इन्हें केवल मनोविनोद तक सीमि

Loksangharsha

प्यास बढ़कर आज खंजर सी लगे है । कांच की दीवार पत्थर सी लगे है ॥ उस परी की निगाहों की कसम - पुतलियों की शाम सुंदर सी लगे है ॥ है दरख्तों को बहुत उचाईयों का गम - बंदिशों की फांस अन्दर सी लगे है॥ इंसान जो ईमान हक़ सचाइयो पर है - पर्वतो की राह कंकर सी लगे है ॥ डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ' राही '

ईश्वर में विश्वास को पिछड़ापन कहते हैं वे

विनय बिहारी सिंह ईश्वर को मानना या न मानना व्यक्तिगत मामला है। जो मानता है उसका भी और जो नहीं मानता उसका भी आदर करना चाहिए। लेकिन कुछ लोग ज्यादा प्रगतिशील बनने के चक्कर में ईश्वर में विश्वास करने वालों की खिल्ली उड़ाते हैं। या उन्हें कमतर बताते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर- फीश्वर कुछ नहीं होता। अपना कर्म करते रहो, उसका फल अवश्य मिलेगा। यह कह कर वे खुद को इस ब्रह्मांड का जानकार मानते हैं और ईश्वर में भरोसा रखने वालों को लगभग मूर्ख की संग्या देते हैं। दुनिया भर में ईश्वर को मानने वाले लोग हैं औऱ उनकी अपनी आस्थाएं हैं। लेकिन वे लोग ईश्वर को गाली देने वालों के बारे में कुछ नहीं कहते। वे चुपचाप अपनी दिनचर्या में मस्त रहते हैं। यह पूरा ब्रह्मांड ही ईश्वर का प्रमाण है। खुद मनुष्य और सारा जीव- जगत और निर्जीव जगत ईश्वर के होने का प्रमाण है। और ईश्वर में गहरी आस्था रखने वाले का मजाक क्यों उड़ाया जाना चाहिए? पूजा- पाठ करने वाले को हीन दृष्टि से क्यों देखा जाना चाहिए? यह तो विचित्र मनःस्थिति का परिचायक है। कोई व्यक्ति क्या खुद ही पैदा हो गया? और क्या खुद ही उसने अपने माता- पिता को चुना? क्या जन्म ल

औरत की दास्ताँ

दोहा : गरीबो का जग में gujaaraa नही है। प्रभू के बिना कुछ सहारा नही है॥ दुनिया में भगवन ने सब कुछ बनाया। पर दिया गम किसी को किसी को हसाया॥ एक औरत की सुनो दासता सच्ची कहता। पति जिन्दा रहा बीमार वह हरदम रहता॥ पति के बीमारी में वह धन ओउर दौलत बेचीं। सारा जेवर सुनो सम्मान मिलकियत बेचीं॥ एक दिन रात में पति ने कहा बुला करके । ठंडा पानी तो लाओ कही से अब जा करके॥ नारी पानी को गई पति ने दम तोड़ दिया । आज दुनिया से सुनो नाता बाबा छोड़ दिया॥ नारी जब आई जीवित पति नही पाया। रो कर आवाज कर तभी प्रभु को सुनाया॥ किसके गले ओ भगवन मुझको लगाया। पर दिया गम किसी को किसी को हसाया॥ अकेली लाश लिए पति जलाने चल दी। धाधाक्ति ज्वाला अपने दिल की बुझाने चल दी॥ पहुची जब घाट ऊपर चिता जो रचाती है। अपने हाथो से स्वाम पति को जलाती है॥ शाम को वक्त था चिता लगी जब भाभाकने। एक साधू आया फ़िर लगा वही तड़पने॥ साधू बाबा ने कहा सुनो घाट मेरा है । लाश हटा ले फ़ौरन हमारा डेरा है॥ किसके कहने से यहाँ चिता को रचाई है। सुनो नारी रो रो कर फ़िर सुनाई है॥ अपने पति के सत्य पर चिता को रचाया॥ पर दिया....... नारी फ़िर रो क

फूल तो आ जाने दो..

फूल तो आ जाने दो.. अभी तो कलिया खिल रही है। फूल तो आ जाने दो॥ फ़िर आके रस चूस लेना। अभी जरा मुस्काने दो॥ हर अदा पे मुग्ध हुए हो। पलकों पे मुझे बिठाओ गे॥ अपनी बाहों में लेके । मेरा दिल बहलाओ गे॥ अभी न रोको रास्ता मेरा पहले घर को जाने दो॥ फ़िर आके रस चूस लेना।अभी जरा मुस्काने दो॥ तुम्हे देख कर चंचल हो गयी। भूल गई कुछ लाज को॥ घर वालो की बाग़ गलाग्यी मई अर्पित कर दी आप को॥ अभी हवा पुरुवा डोली है। मुझे ज़रा इठलाने दो॥ फ़िर आके रस चूस लेना।अभी जरा मुस्काने दो॥ वह दिन जल्द ही आयेगा। जब मेरी मांग सजाओ गे॥ अपने हाथो से अमृत रस। साजन मुझे पिलायो गे॥ सुबह तो मेरी राह न रोको सांझ ज़रा हो जाने दो॥ फ़िर आके रस चूस लेना। अभी जरा मुस्काने दो॥

फूल तो आ जाने दो..

फूल तो आ जाने दो.. अभी तो कलिया खिल रही है। फूल तो आ जाने दो॥ फ़िर आके रस चूस लेना। अभी जरा मुस्काने दो॥ हर अदा पे मुग्ध हुए हो। पलकों पे मुझे बिठाओ गे॥ अपनी बाहों में लेके । मेरा दिल बहलाओ गे॥ अभी न रोको रास्ता मेरा पहले घर को जाने दो॥ फ़िर आके रस चूस लेना।अभी जरा मुस्काने दो॥ तुम्हे देख कर चंचल हो गयी। भूल गई कुछ लाज को॥ घर वालो की बाग़ गलाग्यी मई अर्पित कर दी आप को॥ अभी हवा पुरुवा डोली है। मुझे ज़रा इठलाने दो॥ फ़िर आके रस चूस लेना।अभी जरा मुस्काने दो॥ वह दिन जल्द ही आयेगा। जब मेरी मांग सजाओ गे॥ अपने हाथो से अमृत रस। साजन मुझे पिलायो गे॥ सुबह तो मेरी राह न रोको सांझ ज़रा हो जाने दो॥ फ़िर आके रस चूस लेना। अभी जरा मुस्काने दो॥

मुक्तक : आचार्य संजीव 'सलिल'

सर को कलम कर लें भले, सरकश रहें हम. सजदा वहीं करेंगे, जहाँ आँख भी हो नम. उलझे रहो तुम घुंघरुओं, में सुनते रहो छम. हमको है ये मालूम,'सलिल'कम नहीं हैं गम.

सामयिक रचना:

शक्कर मंहगी होना पर... दोहा गजल आचार्य संजीव 'सलिल' शक्कर मंहगी हो रही, कडुवा हुआ चुनाव. क्या जाने आगे कहाँ, कितना रहे अभाव? नेता को निज जीत की, करना फ़िक्र-स्वभाव. भुगतेगी जनता 'सलिल', बेबस करे निभाव. व्यापारी को है महज, धन से रहा लगाव. क्या मतलब किस पर पड़े कैसा कहाँ प्रभाव? कम ज़रूरतें कर'सलिल',कर मत तल्ख़ स्वभाव. मीठी बातें मिटतीं, शक्कर बिन अलगाव. कभी नाव में नदी है, कभी नदी में नाव. डूब,उबर, तरना'सलिल',नर का रहा स्वभाव. ***********************************