आशुतोष
1990 में आधिकारिक तौर पर मार्क्सवाद की मौत हो गयी लेकिन उसके शव को लेकर अभी भी कुछ लोग घूम रहे हैं। लेनिन के रूस ने इस शव को दफन कर दिया है और माओ का चीन इस शव को भूल चुका है लेकिन इस देश में कुछ सिरफिरों को अभी भी लगता है कि मार्क्स की तंत्र साधना कर के इस शव में जान फूंकी जा सकती है। इसलिये किशन जी 2011 में कोलकाता में सशस्त्र क्रांति का सपना संजो रहे हैं। और पिछले दिनों दंतेवाड़ा के जंगलों में 76 जवानों का कत्ल कर के ये सोचने भी लगे हैं कि अब क्रांति दूर नहीं है और बहुत जल्द ही दिल्ली पर भी उनका कब्जा हो जायेगा।
इन सिरफिरों के कुछ सिरफिरे दोस्त भी इसी यकीन पर कब्जा जमाये बैठे हैं और पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में जोर दे दे कर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को बलात्कारी और कातिलों की जमात ठहराने के लिये अंग्रेजी और हिंदी के शब्दों का खूबसूरत इस्तेमाल भी करने लगे हैं। लेकिन ये भूल जाते हैं कि दिल्ली के आराम पंसद माहौल में रहकर नक्सलियों की वकालत करना आसान है लेकिन इस सचाई से रूबरू होना मुश्किल कि अगर य़े नक्सली वाकई में अपने मकसद में कामयाब हो गये तो सबसे पहले इनकी ही जुबान पर ताला लग