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Showing posts from May 31, 2010

लो क सं घ र्ष !: बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -2

(पंखहीन बुलबुल) जैसा कि ऊपर बताया गया ज़फ़र को मुल्क व दौलते-बादशाही बस नाम को ही मिली थी, वे सूरत ए हाल से बखूबी वाकिफ़ थे लेकिन उनके पास करने को कुछ नहीं था क्योंकि उस अहद में ज़माने ने ख़ासतौर पर हिन्दुस्तान के लिए और आमतौर पर आलमे मशरिक़ के लिए कुछ ऐसी करवट पलटी थी जैसा कि आजकल मौजूदा दौर में फिर पलटने लगा है। उसको सँभालना उन बुलबुले बे बालो पर के लिए ना मुमकिन था क्योंकि वे एक ऐसी हालत में थे कि दस्ते दुआ भी दराज़ करें कज़ाए इलाही को नहीं बदल सकते थे:- दिखाती है जो शमशीर-ए- कज़ा अपनी जबरदस्ती। नहीं दस्ते दुआ की काम आती, है सिपर दस्ती। (ढाल) ज़फ़र की उल्टी क़िस्मत इतनी बिगड़ी हुई थी कि कज़ा ए इलाही के सामने उनकी दुआएँ कुछ काम न आने के साथ-साथ जिनसे उनकी उम्मीदे वाबस्ता थीं वे उनसे कह रहे थे ‘‘पहले तुम मर तो लो फिर तुम्हारी उम्मीदें पूरी हो जाएँगी।’’ मैंने कहा कहो तो मसीहा तुम्हें कहूँ। कहने लगे कि कहना अभी पहले मर तो लो।। दरअसल वह अपनी इस हालत पर सरापा एहतेजाज है और कभी कभार उनका यह अन्दरूनी एहतेजाज (असंतोष) यूँ जाहिर होता है और वे सोने के पिंजड़े को टुकड़

तम्बाकू निषेध दिवस!

                                    आज तम्बाकू निषेध दिवस - हर वर्ष आता है और हर वर्ष इसी तरह से चला जाता है, लोग अखबार में आलेख देखते हैं और रख देते हैं.                                पर आज ये क्रांति दिवस ब्लॉग की दुनियाँ में भी छाएगा. ऐसा नहीं है कि हमारे ब्लॉगर बन्धु इस शौक से दोस्ती न रखते हों और रखने वाले इन बातों को बेकार की दलीलें  न मानते हों  और कहते हों  कि देखो अमुक तो कुछ भी नहीं खाता था और उसको मुंह या गले का कैंसर हो गया. ये आप किसे झुठलाने की कोशिश करते हैं , खुद को या घर वालों या अपने शुभचिंतकों को. अगर आग पर चलेंगे तो आज नहीं कल पैर जरूर जलेंगे और छाले भी आपको ही पड़ेंगे उसकी तपिश आप अकेले नहीं झेलेंगे अपितु आपके घर वाले भी उसमें झुलसेंगे. अभी भी देर नहीं हुई है - जो इसके सेवन में लिप्त हैं छोड़ने का मन बना लें तो दुनियाँ में असंभव कुछ भी नहीं है.                              मैंने इस विभीषिका को झेला है इसलिए जानती हूँ, मेरे ससुर जी तम्बाकू खाते थे और उससे ही उन्हें कैंसर की शुरुआत हुई थी. उनके कष्ट को मैं नहीं झेल सकती थी लेकिन मैंने बहुत कुछ झेला. इस लिए यही चाह

पड़ोस की लड़की..

मुझको चिंता है तेरी क्यों घर पर आती हो॥ मम्मी पापा के सामने घंटो बतलाती हो॥ गर भनक लगी दोनों की घंटी बज जायेगी॥ तेरे लिए दूल्हो की मण्डी सज जायेगी॥ क्यों दुहारिया खिड़की से हमें चिढाती हो॥ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, जब होगी तुम्हारी शादी हम आंसू बहाएगे॥ कभी कभी सपनों में तेरे आयेगे॥ क्यों संझालौका भीतरे म हमें बुलाती हो॥ फिर बुरा समय आयेगा दुल्हन हम पायेगे॥ तेरी गुण की गाथा उसे सुनायेगे॥ मेरे मन की माला क्यों गले सजाती हो॥ पड़ोस की लड़की::::::::::::::: pados की लड़की

लो क सं घ र्ष !: बुलबुल-ए-बे-बाल व पर -1

(पंखहीन बुलबुल) 20 जनवरी 1858ई0 को बवक़्ते सुबह दीवाने ख़ास क़िला देहली। यह हिन्दुस्तान की तारीख़ के लिए एक अहम मोड़ है। हिन्दुस्तान को गु़लामी की ज़जीरों में जकड़ने के लिए एक आख़िरी चाल चली जा रही है। आज हिन्दुस्तान की आज़ादी की आख़िरी किरन तारीकी के हाथों मिटाई जा रही है और हिन्दुस्तान ग़ुलामी के एक तवील (लम्बे) दौर में क़दम रखता है। इस दिन क़िला-देहली के दीवाने ख़ास में देहली के आख़िरी ताजदार और मुग़ल ख़ानदान के आख़िरी चिराग़ बहादुर शाह ज़फ़र के मुक़दमे का पहला-पहला इजलास शुरू होता है। प्रेसीडेंट, मेम्बरान, वकील-सरकार मौजूद हैं। मुल्ज़िम मुहम्मद बहादुर शाह साबिक़ (भूतपूर्व) शाह देहली को लाया जाता है। इजलास के मुजतमअ़ (इकट्ठा) करने और लेफ्टिनेन्ट कर्नल डास को प्रेसीडेंट बनाने के एहकाम पेश होते और पढ़े जाते हैं। अफसरान मुतअय्यिना (नियुक्त) के नाम मुल्जिम की मौजूदगी में पढ़े जाते हैं। मुल्जिम से अदालत का सवाल-आपको मौजूदा मेम्बरान जेवरी (पंचगण) व प्रेसीडेंट के मुक़दमे की समाअत (सुनवाई) करने में कोई एतराज है? जवाब-मुझे कोई एतराज नहीं है। दुनिया की ज़िन्दगी कितनी फ़रेबदह, कितनी झूठी है