प्रमोद उपाध्याय इस तथाकथित लोकतंत्र के बारे में भी ख़ूब सोचते और बातें करते थे। उनके पास बैंठे तो वे लोकतंत्र की ऐसी-ऐसी पोल खोलते थे कि मन दुखी हो जाता और देश के राजनेताओं को जूते मारने की इच्छा होने लगती। प्रमोद जी बार-बार लोकतंत्र में जनता और सत्ता के बीच फैलती खाई की तरफ इशारा करते। उन्हीं के शब्दों में कहें तो-लोकतंत्र की बानगी देते हैं हुक्काम/टेबुल पर रख हड्डियाँ दीवारों पर चाम। ख़ुद मास्टर थे, लेकिन शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी कुछ यो करते- नई-नई तालीम में, सींचे गये बबूल बस्तों में ठूसे गये, मंदिर या स्कूल जब 1992 में बाबरी को ढहाया गया। प्रमोद जी ऐसे बिलख रहे थे जैसे किसी ने उनका झोपड़ा तोड़ दिया, जबकि प्रमोद जी न मंदिर जाते, न मस्जिद। प्रमोद जी ने साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को मौखिक रूप से जितनी गालियाँ बकीं, वो तो बकीं ही, पर साम्प्रदायिक राजनीति पर अपनी रचनाओं में जी भर कटाक्ष भी किया। देखिए एक बानगी- रामलला ओ बाबरी, अल्ला ओ भगवान भूखे जन से पूछिये, इनमें से कौन महान दीवारों पर टाँगना, ईसा सा इंसान यही सोचकर रह गईं, दीवारें सुनसान और एक शेर है कि- ख़ुदगर्जों का बढ़ा काफिला, क़ौम ध