अंतरराष्ट्रीय सीमा और विद्वेष का लंबा इतिहास साझा करने वाले दो परमाणु ऊर्जा संपन्न पड़ोसी देश यदि अपने द्विपक्षीय रिश्तों के तकरीबन टूटने की हद तक पहुंचने की स्थिति में भी संतुष्ट बैठे हों तो इसका मतलब कोई गंभीर गड़बड़ी है। भारत-पाक के बीच यही हो रहा है क्योंकि दिल्ली में द्विपक्षीय बातचीत बहाल करने की कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं। दोनों देश भले यह दिखाने की कोशिश कर रहे हों कि उन्हें यथास्थिति से फर्क नहीं पड़ता, पर सच यह है कि दोनों ऐसे हालात गवारा नहीं कर सकते। पहले पाकिस्तान को लें। ऐसा लगता है कि इस्लामाबाद अपनी विदेश नीति में आए एक कठिन दौर से उबर चुका है। अमेरिका के साथ उसकी रणनीतिक बातचीत इस बात का संकेत है कि वैश्विक राजनीति में पाकिस्तान अचानक प्रासंगिक हो उठा है। जब से तालिबान और अन्य अफगानी लड़ाकों के साथ मेल-मिलाप का मुद्दा अफगानिस्तान की स्थिरता संबंधी विमर्श के केंद्र में आया है, अचानक इस समूचे खेल में पाकिस्तान की जबरदस्त वापसी हुई है। अकेले यही चीज पाकिस्तान के पक्ष में जाती है, हालांकि देश के सामने खड़ी तमाम चुनौतियों के संदर्भ में किसी भी लिहाज से यह अंतिम सम