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Showing posts from October 6, 2009

कृति चर्चा: Contemporary Hindi poetry:

कृति चर्चा: Contemporary Hindi poetry: (A selection of Modern Hindi poems translated in English) Editor & Translator: Bhagvat Prasad Mishra 'Niyaz' Pages: 197, Price Rs. 300/- Sat Sahitya Prakashan, FF4/B Block, Sun Power Flats, Mem Nagar, Ahmedabad 380052 * 'The present collection of Contemporary Hindi poems is a bouquet of different variety of flowers both in colour and fragrance fresh from the Hindi garden. Hindi poetry today is not the old, traditional, formal and ornamental poetry. However, umlike west it still maintains it's lyricality through it's internal rhythm. But you can'nt charge it with coservatism. It is much modern because both in form and content, it has broken the shackles of set metafers and similies and created new ones. What is most noteworthy is the return of the lyricin the form of songs, ghazals, new lyric and couplets. Though translation is not original poetry but the spirit is there throbbing in every word and li

लो क सं घ र्ष !: जियरा अकुलाय

खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय , विकल तन मन जियरा अकुलाय । तुम का जानौ मोरि बलमुआ मुनउक चढा बुखार , घरी घरी पिया तुमहेंक पूंछैं फिरि अचेत होई जायं , खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय , विकल तन मन जियरा अकुलाय । किहें रहो तैं जिनते रिश्ता उई अतने सह्जोर , बिटिया कैंहा द्यउखै अइहैं पुनुवासी के भोर , खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय , विकल तन मन जियरा अकुलाय । चढा बुढापा अम्मा केरे बापू भे मजबूर , खांसि खंखारि होति हैं बेदम गंठिया सेनी चूर , खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय , विकल तन मन जियरा अकुलाय । गिरा दौंगरा ई असाढ़ ख्यातन मां जुटे किसान , कौनि मददि अब कीसे मांगी घरमा चुका पिसान , खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय , विकल तन मन जियरा अकुलाय । काहे हमसे मुंह फेरे हो जाय बसेउ परदेश , साल बीत तुम घरे न आयेव धरेव फकीरी भेष , खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय , विकल तन मन जियरा अकुलाय । हँसी उडावे पास पड़ोसी रोजू दियैं उपदेश , चोहल करैं सब मोरि कन्त कब अइहैं अपने देश , खबरि उनका देतिऊ पहुंचाय , विकल तन मन

मै आशा की बनी निराशा॥

मै आशा की बनी निराशा॥ जो पक्के महल बनाती हूँ॥ अपने हाथो से कस - कस कर॥ फावडे कूदार चलाती हूँ॥ सर पर लेके सीमेंट की बोरी॥ चढ़ जाती हूँ झज्जे पर॥ शाम को वापस आती हूँ जब॥ रोटी बनाती आड्डे पर॥ पीठ पर लादे बच्चे को ॥ छत पर दूध पिलाती हूँ॥ अपने लिए न घर बँगला है॥ न डनलप के मोटे गद्दे॥ लिए चटाई सो लेती हूँ॥ लग जाते मिट्टी अव भद्दे॥ बच्चो को जब सर्द लगे तो॥ लकडी की आग तपाती हूँ॥

गरीब का उपहार...

गुलदस्ता गरीब ने उपहार में दे दिया॥ लेकिन उपहार लेने वालो ने उसे कूदे में फेंक दिया॥ क्यो की वह गुलदस्ता गरीब ने कम रूपयों में खरीदा था॥ उस गुलदस्ते से अमरीकन सेंत की खुशबू नही आ रही थी॥ गरीब उदास मन लिए उस गुलदस्ते को उठा लिया॥ और अपने झोपडी में सजा दिया॥ यही गुलदस्ता उस झोपडी का पूर्णिमा का चाँद बन गया॥ अमरीकन गुलदस्ता एक हफ्ते बाद कूदे घर में पडा । है॥