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Showing posts from May 24, 2009

खुशखबरी हिन्दी ब्लोग्स पर अब एड कर सकते है.....

प्रिये हिन्दी ब्लोग्गेर्स आप सब के लिए एक खुशखबरी है की अब आप लोग भी अपने हिन्दी ब्लोग्स पर एड दिखा सकते है, मैंने अपने ब्लॉग पर एड लगा लिए हैं आप चाहे तो देख सकते है...मुझे ऐसे ही एक वेबसाइट मिल गई मैंने तो अपने इंग्लिश ब्लॉग पर एड लगाने के लिए उसे ज्वाइन करा था लेकिन रजिस्टर करते वक्त मुझे पता चला की उसमे हिन्दी के लिए भी जगह है... आगे पढ़े .....

बे वफ़ा ( ग़ज़ल)

कभी तो तुमको याद आएगी वो बहारें वो समा झुके झुके बादलों के निचे मिले थे हम तुम जहा जहा कभी तो तुम को याद आएगी ........................ तुम से बिछडे सदियाँ बीती , फिर भी हमे याद आते हो खुशबू बन कर आहट बनकर , आज भी तुम तड़पाते हो ज़िन्दगी कितनी बेजार है , तुमने कभी तो मुझसे कहा था तुम से प्यार है कहां गई वो प्यार की कसमे, प्यार का वादा क्या हुआ बेवफा वो बेवफा ..................................................... कभी तो तुमको याद आएगी.................................. जितना तुमको अपना समझा, उतना ही हम बेगाने थे हमने क्या-क्या आस लगाई हम कितने दीवाने थे ज़िन्दगी कितनी बे जार है तुमने कभी तो मुझसे कहा था तुमसे प्यार है कहा गई वो प्यार की कसमे प्यार का वादा क्या हुआ बे वफ़ा वो बेवफा ................................................... कभी तो तुमको याद आएगी................................

ग़ज़ल

ख्वाब में जो कुछ देख रहा हूँ उसका दिखाना मुश्किल है आईने में फूल खिला है हाथ लगाना मुश्किल है उसके कदम से फूल खिले है मैंने सुना है चार तरफ वैसे इस वीरान सेहरा में फूल खिलाना मुश्किल है तन्हाई में दिल का सहारा एक हवा का झोंका था वोह भी गया है सुए बयाबा उसका आना मुश्किल है शीशा गरों के घरों में सूना है एक परी कल आई थी वैसे ख्याल ओ ख्वाब है परियां उनका आना मुश्किल है खवाब में जो कुछ देख रहा हूँ उसका दिखाना मुश्किल है आईने में फूल खिला है हाथ लगाना मुश्किल है

- साहित्य समाचार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ''वागविदांवर सम्मान'' से विभूषित

- साहित्य समाचार- हिन्दी साहित्य सम्मलेन शताब्दी वर्ष समारोह अयोध्या , १०-११ मई '0९ । समस्त हिन्दी जगत की आशा का केन्द्र हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग अपने शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में देव भाषा संस्कृत तथा विश्व-वाणी हिन्दी को एक सूत्र में पिर्पने के प्रति कृत संकल्पित है। सम्मलेन द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता, संस्कृति, हिंदी भाषा तथा साहित्य के सर्वतोमुखी उन्नयन हेतु नए प्रयास किये जा रहे हैं। १० मई १९१० को स्थापित सम्मलेन एकमात्र ऐसा राष्ट्रीय संस्थान है जिसे राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन तथा अन्य महान साहित्यकारों व समाजसेवियों का सहयोग प्राप्त हुआ। नव शताब्दी वर्ष में प्रवेश के अवसर पर सम्मलेन ने १०-११ मई '0९ को अयोध्या में अखिल भारतीय विद्वत परिषद् का द्विदिवसीय सम्मलेन हनुमान बाग सभागार, अयोध्या में आयोजित किया गया। इस सम्मलेन में २१ राज्यों के ४६ विद्वानों को सम्मलेन की मानद उपाधियों से सम्मानित किया गया। १० मई को 'हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी साहित्य सम्मलेन' विषयक संगोष्ठी में देश के विविध प्रान्तों से पधारे ११ वक्ताओं ने विद्वतापूर्ण व्याख्यान दिए । साहित्य वाचस्प

आग का समंदर है नाव मोम वाली है ...

पार जा सकेंगे हम ,सोच ही निराली है । आग का समंदर है नाव मोम वाली है । हर तरफ़ अंधेरो की क्या करें शिकायत हम - लौ दिये की गिरवी है कहने को दिवाली है । खून कैसे बिखरा है माँ के श्वेत आँचल पर- बापू की अहिंसा आज तक सवाली है। घी घडो में लिपटा है और पेट खाली है- हक़ की बात करता ,कौन ये मवाली है। कितने घर अंधेरो में सरहदों ने कर डाले- हुक्मरां के कोठो पर आज भी दिवाली है । वो जवाँ से कहते है कोख सूनी होती है- इस में तो गोवा है कुल्लू है मनाली है । जिंदगी गजल जैसी, जवानी तो यू समझें आंसुओ की दौलत तो 'राही'ने सम्हाली है। -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

23 साल पहले हुआ था मलियाना में पीएसी का तांडव

सलीम अख्तर सिद्दीकी 23 मई 1987 को मेरठ के मलियाना कांड हुए 23 साल हो गए हैं। एक पीढ़ी बुढ़ापे में कदम रख चुकी है तो एक पीढ़ी जवान हो गयी है। लेकिन मलियाना के लोग आज भी उस दिन का टेरर भूले नहीं है। और न ही पीड़ितों को अब तक न्याय और उचित मुआवजा मिल सका है। 23 मई 1987 की सुबह बहुत अजीब और बैचेनी भरी थी। रमजान की 25वीं तारीख थी। दिल कह रहा था कि आज सब कुछ ठीक नहीं रहेगा। तभी लगभग सात बजे मलियाना में एक खबर आयी कि आज मलियाना में घर-घर तलाशी होगी और गिरफ्तारियां होंगी। वो भी सिर्फ मुस्लिम इलाके की। कोई भी इसकी वजह नहीं समझ पा रहा था। भले ही 18/19 की रात से पूरे मेरठ में भयानाक दंगा भड़का हुआ था, लेकिन मलियाना शांत था और यहां पर कफ्ूर्य भी नहीं लगाया गया था। यहां कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा तो दूर तनाव तक नहीं हुआ था। हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ सुख चैन से रहते आ रहे थे। तलाशियों और गिरफ्तारियों की बात से नौजवानो में कुछ ज्यादा ही बैचेनी थी। इसी बैचेनी में बारह बज गए। इसी बीच मैंने अपने घर की छत से देखा कि मलियाना से जुड़ी संजय कालोनी में गहमागहमी हो रही है। ध्यान से देखा तो एक देसी शराब के ठेके से शरा

जूजू इन मेकिंग....

वोडाफोन के जूजू विज्ञापन आजकल बहुत देखे और पसंद किए जा रहे हैं। आइ पी एल के पहले सीज़न के दौरान वोडाफोन ने 'हैप्पी टू हेल्प' सीरीज़ को, जिसका क्यूट डॉग भी सभी को भाया था, को लॉन्च किया था। अब आई पी एल के दूसरे सीज़न में जूजू कैरेक्टर ने धूम मचा दी है। टीवी के साथ-साथ ज़ू-ज़ू साइबर वर्ल्ड में भी धूम मचा रहे हैं। ज़ू-ज़ू फेसबुक में काफी लोकप्रिय हो चुका है। इसके करीब 65,000 हजार फैन्स बन चुके हैं। ज़ू-ज़ू कोई कंप्यूटर का कमाल नहीं हैं। असल में ये हरकतें स्पेशल कॉस्ट्यूम पहने कलाकार करते हैं। ज़ू-ज़ू को बनाने में करीब तीन हफ्ते का समय लगा। करीब 30 से ज्यादा लोगों की टीम ने इस प्रोजेक्ट पर काम किया। ज़ू-ज़ू के विज्ञापन की शूटिंग साउथ अफ्रीका में हुई है । ज़ू-ज़ू के विज्ञापनों की शूटिंग पर करीब 30 करोड़ रुपये खर्च हुए है। यहाँ हम आपको दिखा रहे हैं जूजू इन मेकिंग से कुछ ख़ास तस्वीरें.... आगे पढ़ें के आगे यहाँ

मोदी के गुजरात में घास-फूस खाकर जिंदा हैं आदिवासी

लुणावाड़ा (गुजरात). विकसित राज्यों की श्रेणी में शामिल होने का दावा करने वाले गुजरात में पंचमहाल जिले के राजस्थान से सटे इलाकों में विकास की लहर नहीं पहुंच सकी है। बिजली, पानी, आवास और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में इन इलाकों के आदिवासियों को जिंदा रहने के लिए मजबूरन घास खानी पड़ रही है। ये आदिवासी पेड़ों की हरी पत्तियां और घास-फूस खाकर अपना पेट भरते हैं। यूं बेघर हुए भुवाबार गांव के पास पर्वतीय क्षेत्र में इन आदिवासियों का बसेरा है। इलाके में कडाणा बांध बनने के बाद इनकी जमीनें डूब क्षेत्र में आ गई थी। लेकिन उन्हें इसका पर्याप्त मुआवजा नहीं मिला। अपने ही इलाके में बेगाने हो गए कई आदिवासी परिवार राजस्थान चले गए, लेकिन एक हजार से अधिक आदिवासी गांव से करीब 15 किमी दूर पर्वतीय क्षेत्र में आकर बस गए। हफ्ते में एक दिन अनाज घास-फूस के छप्परों में रहने वाले इन आदिवासियों को पीने के पानी के लिए ढाई किमी दूर बने एक हैंडपंप पर निर्भर रहना पड़ता है। पानी के अभाव में खेती का नामोनिशान नहीं है। मजदूरी करने के लिए करीब दस किमी दूर तक जाना होता है, लेकिन वहां भी उन्हें सिर्फ दो-तीन रुपए की मज

ग़ज़ल

आँखों में अगर आज वो महताब न होता मैं अपने लिए सुबह तलक ख्वाब न होता कमरे में अगर खिड़की से कुछ फूल न गिरते दिल तेरे लिए इस तरह बेताब न होता बस्ती में कभी इश्क की आवाज़ न आती दरिया अगर नगमा सैलाब न होता आंखों में अगर आज वो महताब न होता मैं अपने लिए सुबह तलक ख्वाब न होता

ग़ज़ल

आज सितारे आँगन में है उनको रुखसत मत करना शाम से मैं भी उलझन में हू तुम नही गफलत मत करना हर आँगन में दिए जलाना, हर आँगन में फूल खिलाना उस बस्ती में सब कुछ करना हम से मोहब्बत मत करना अजनबी मुल्कों अजनबी लोगों में आकर मालूम हुआ देखना सारे ज़ुल्म वतन में लेकिन हिजरत मत करना उसकी याद में दिन भर रहना आंसू रो के चुप साधे फिर भी सबसे बातें करना उसकी शिकायत मत करना