हर्ष मंदर वह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्षण था, जब देशभर के मध्यवर्गीय युवा भ्रष्ट प्रशासन के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के लिए एकजुट हुए। हमारा देश कई विरोध प्रदर्शनों का साक्षी रहा है। कुछ हिंसक तो कुछ शांतिपूर्ण। कुछ वेतन व भूमि के लिए तो कुछ आत्मसम्मान व मानवाधिकारों के लिए। लेकिन यह आंदोलन कुछ अलग था। दशकों बाद हमने शिक्षित और संपन्न युवाओं को इतने बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरकर विरोध-प्रदर्शन करते, नारे लगाते और मोमबत्तियां जलाकर रैली निकालते देखा। ये युवा एक बेहतर भारत के लिए उम्मीदों की तलाश कर रहे थे। प्रारंभ में तो राजनीतिक वर्ग ने इस आंदोलन के प्रति द्वेषपूर्ण रवैया रखा, लेकिन जैसे-जैसे लोग जुटते गए, सरकार की मनोदशा बदलने लगी। जल्द ही आंदोलनकारियों की सभी मांगें स्वीकार कर ली गईं और उनके लिए जनसमर्थन बढ़ता गया। आंदोलन को जिस तरह का समर्थन मिला, वह सतही नहीं था। इस विरोध के पीछे गहरी बेचैनी और आक्रोश था। लोग अब किसी तरह के भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। ऐसे आंदोलनों की अनदेखी करना किसी भी राजनीतिक नेतृत्व के लिए संभव नहीं है। मेरा मानना ह