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Showing posts from June 21, 2009

लो क सं घ र्ष !: प्रहरी मुझको कर डाला...

लघु स्मृति की प्राचीरों ने, कारा निर्मित कर डाला । बिठला छवि रम्य अलौकिक प्रहरी मुझको कर डाला ॥ पाटल-सुगंधी उपवन में, ज्यों चपला चमके घन में। वह चपल चंचला मूरत विस्थापित है अब मन में॥ परिधान बीच सुषमा सी, संध्या अम्बर के टुकड़े । छुटपुट तारों की रेखा हो लाल-नील में जकडे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

लो क सं घ र्ष !: तब भटकती प्रत्याशा...

ले प्रेम लेखनी कर में मन मानस के पृष्ठों में। अनुबंध लिखा था तुमने उच्छवासो की भाषा में॥ अनुबंध ह्रदय से छवि का है लहर तटों की भाषा। जब दृश्य देख लेती है तब भटकती प्रत्याशा॥ उन्मीलित नयनो में अब छवि घूम रही है ऐसे। भू मंडल के संग घूमे, रवि,दिवस,प्रात तम जैसे॥ -डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''

फादर्स डे स्पेशल - पिता को समझने में लगता है वक्त..

पिता महान होते है, यह समझने में उम्र निकल जाती है। और जब वाकई समझ में आता है कि पिताजी ही सही थे, तब तक काफी देर हो चुकी होती है..। हर बच्च अपनी पिता की गोद में बढ़ता है, उनकी उंगली पकड़कर चलना सीखता है, दुनिया देखता है, लेकिन फिर भी उसे अपने पिता की शख्सियत को समझने में काफी वक्त लग जाता है। उम्र के विभिन्न हिस्सों में हर बच्चे की नज़र में पिता की छवि बदलती रहती है। उनकी बातें स्मृतिपटल पर स्पष्ट निशान छोड़ जाती हैं। लेकिन एक समय ऐसा आता है, जब वही निशान फिर से उभरने लगते हैं.. पांच वर्ष की आयु तक हर बालक यही समझता व कहता है कि मेरे पिताजी बहुत अच्छे हैं। दुनिया में उनका जैसा कोई नहीं। फिर बच्चा बड़ा होता है। छह से बारह वर्ष की उम्र के बीच समझने के बाद कहता है- ‘मेरे पिताजी यूं तो बहुत अच्छे है, लेकिन पता नहीं क्यों जल्दी गुस्सा हो जाते हैं।’ युवावस्था में पहुंचने तक बच्चे की समझ-बूझ में परिवर्तन आने लगता है। अब वह अपने पिता के बारे में कहता है- ‘पहले मेरे पिताजी बहुत अच्छे थे, लेकिन अब न जाने क्यों वे तुनक-मिजाÊा होते जा रहे हैं।’ अब उसका विवाह हो चुका है और वह बच्च स्वयं एक पिता है।

लो क सं घ र्ष !: अवधी भाषा में सवैये

श्रम के बलु ते भरी जाँय जहाँ गगरी -गागर ,बखरी बखरा । खरिहान के बीच म ऐसु लगे जस स्वर्ग जमीन प है उतरा । ढेबरी के उजेरे मा पंडित जी जहँ बांची रहे पतरी पन्तर। पहिचानौ हमार है गांव उहै जहाँ द्वारे धरे छ्परी - छपरा॥ निमिया के तरे बड़वार कुआँ दरवज्जे पे बैल मुंडेरी पे लौकी। रस गन्ना म डारा जमावा मिलै तरकारी मिली कडू तेल मा छौंकी । पटवारी के हाथ म खेतु बंधे परधान के हाथ म थाना व चौकी । बुढऊ कै मजाल कि नाही करैं जब ज्यावें का आवे बुलावे क नौकी॥ अउर पंचो! हमरे गाव के प्रेम सदभाव कै पाक झलक दे्खयो- अजिया केरे नाम लिखाये गए संस्कार के गीत व किस्सा कहानी । हिलिकई मिलिकै सब साथ रहैं बस मुखिया एक पचास परानी। हियाँ दंगा -फसाद न दयाखा कबो समुहै सुकुल समुहै किरमानी। अठिलाये कई पाँव हुवें ठिठुकई जहाँ खैंचत गौरी गडारी से पानी॥ हियाँ दूध मा पानी परे न कबो सब खाय-मोटे बने धमधूसर । भुइयां है पसीना से सिंची परी अब ढूंढें न पैहो कहूं तुम उसर। नजरें कहूँ और निशाना कहूँ मुल गाली से जात न मुसर। मुखडा भवजाई क ऐसा लगे जस चाँद जमीन पै दुसर ॥ -अम्बरीष चन्द्र वर्मा ''अम्बर''