'छोड़ दो समर जब तक न सिध्दि हो रघुनन्दन'-ये पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मशहूर कालजयी कविता 'राम की शक्तिपूजा' की हैं। कृतिवास रामायण की रामकथा से प्रेरित यह कविता तत्कालीन उपनिवेशवादी पूँजीवाद की अन्यायपूर्ण शक्तिमत्ता के संदर्भ को धरण करने वाली है। उपनिवेशवादी सत्ता-प्रतिष्ठान इस कदर शक्तिशाली था कि आजादी के संघर्ष की जीत होना कई बार असंभव लगने लगता है। 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति' कहते हुए 'शक्तिपूजा' के राम की ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं। वे ऐसे युध्द को चलाने में अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं जिसमें हार पर हार होती जाती है। हालांकि रावण की पराजय के बाद राज्य पाने का अभिलाषी विभीषण्ा राम को युध्द के लिए उत्तेजित करने की भरपूर कोशिश करता है। उन्हें उनका किया वादा याद दिलाता है और रावण द्वारा सीता को दुख पहुँचाने की बात कर राम के मर्म पर चोट करता है, लेकिन राम पर विभीषण का असर नहीं होता। वे सविनय कहते हैं-'मित्रवर विजय होगी न समर'। निराला के राम के लिए जीत का अर्थ सीता को मुक्त कराके विभीषण को राज दे देना भर नहीं है। वे शक्ति के उस खेल को ब