मैंने महसूस किया है की जब अजय ब्रह्मतम्ज किसी कलाकार से बात करते है तो वह ना केवल पाठक के लिए रोचक होती है बल्कि कलाकार भी उस रोचकता को पूरी शिद्दत से महसूस करता है,इसका नतीजा यह होता है की कलाकार कभी कभी ऐसे मोड़ों को भी उनके साथ बाँट जाता है जो आमतौर पर उसके अन्दर की दफ़न रहते है.आज हम यहाँ पर एक लेख प्रकाशित कर रहे है,यह लेख ना होकर एक बातचीत है जो विशाल भारद्वाज के सफ़र की जद्दोजद की कहानी कहती है,इसे लेख कहने का मतलब सिर्फ यही है की इसका रूप लेखात्मक है- संपादक- मेरा बचपन मेरठ में गुजरा. मेरे पिता कवि थे और एक सरकारी दफ्तर में काम करते थे. सिनेमा ही हमारे मनोरंजन का इकलौता साधन था. बचपन की देखी फिल्में याद करूं तो मुझे ‘परदे के पीछे’ याद आती है. उसमें विनोद मेहरा और नंदा थे. लेकिन फिल्मों में असली रुचि ‘शोले’ से जगी. तब हम पांचवीं-छठी कक्षा में पढ़ते थे. उसके बाद तो अमिताभ बच्चन के ऐसे दीवाने हुए कि उनकी ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘नसीब’, ‘सुहाग’, हर फिल्म देखी. ऐसी फिल्में ही हम देखते थे. इन फिल्मों ने ही असर डालना शुरू किया. श्याम बेनेगल की एक-दो फिल्में भी देखी थीं. कॉलेज में