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Showing posts from December 28, 2009

ब्लोगिंग ने प्रकाशन के पारंपरिक माध्यम के एकाधिकार में सेंध सी लगा दी है! Monopoly of Publishers and Blogging !

ब्लोगिंग वर्तमान में अंतर्जाल पर सबसे जयादा पसंद किया जाने वाला एक संवाद-स्थल है, यही नहीं इसके माध्यम से  वे लोग जयादा लाभान्वित हो रहे हैं जो लेखक, रचनाकार आदि बनने के सपने तो देखते हैं  और लिखते भी हैं लेकिन उनको प्रकाशित करवाने में उन्हें लाले आ जाते हैं. ब्लोगिंग ने प्रकाशन के पारंपरिक माध्यम के एकाधिकार  में सेंध सी लगा दी है . लेकिन ब्लॉग पर लिखते वक़्त कुछ चीज़ें अगर ध्यान में रखीं जाएँ तो आपकी पोस्ट अच्छी ही नहीं बहुत अच्छी हो सकती है और पोस्ट की सबसे बड़ी ख़ूबी तो यही है कि उसे पाठक शुरू से आखिर तक पढ़ डाले और पाठक इतना सम्मोहित हो जाये कि वह जब तक पूरा का पूरा पढ़ न ले, उसे चैन न आये और क्या ही खूब हो कि पाठक आदि से अंत तक उसे पढ़ भी ले और टिपण्णी करने पर मजबूर हो जाये. ज़्यादातर होता यूँ है कि ब्लोगर बंधू चिट्ठे पर जाते है और पोस्ट ओपन भी करते हैं लेकिन उस पोस्ट को पढ़ते नहीं है और सिर्फ शीर्षक पढ़ कर ही अपनी टिपण्णी कर देते हैं या अगर यूँ कहें कि पाठक अक्सर केवल अपनी टिपण्णी करने ही चिट्ठे पर आते है तो अतिश्योक्ति न होगी. वहीँ दूसरी ओर कुछ ब्लोगर की जमात ऐसी भी है कि वे पढ

लो क सं घ र्ष !: मुजरिमे वक्त तो हाकिम के साथ चलता है

हमारा देश करप्शन की कू में चलता है, जुर्म हर रोज़ नया एक निकलता है। पुलिस गरीब को जेलों में डाल देती है, मुजरिमे वक्त तो हाकिम के साथ चलता है।। ------ हर तरफ दहशत है सन्नाटा है, जुबान के नाम पे कौम को बांटा है। अपनी अना के खातिर हसने मुद्दत से, मासूमों को, कमजोरों को काटा है।। ------ तुम्हें तो राज हमारे सरों से मिलता है, हमारे वोट हमारे जरों से मिलता है। किसान कहके हिकारत से देखने वाले, तुम्हें अनाज हमारे घरों से मिलता है।। ------ तुम्हारे अज़्म में नफरत की बू आती है, नज़्म व नसक से दूर वहशत की बू आती है। हाकिमे शहर तेरी तलवार की फलयों से, किसी मज़लूम के खून की बू आती है।। - मो0 तारिक नय्यर

डा श्याम गुप्त के दोहे--

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ--- कविताई का सत्य-- जिनकी कविता में नहीं ,कोई कथ्य औ तथ्य। उनकी कविता में कहां, श्याम’ ढूढिये सत्य ॥ तुकबन्दी करते रहें, बिना भाव उद्देश्य । देश धर्म ओ सत्य का, नहीं कोई परिप्रेक्ष्य॥ कला कला सौन्दर्य रस, रटते रहें ललाम । जन मन के रस भाव का, नही कोई आयाम॥ गूढ शब्द पर्याय बहु, अलन्कार भरमार । ज्यों गदही पर झूल हो, रत्न जटित गल हार ॥ कविता वह है जो रहे, सुन्दर सरल सुबोध । जन मानस को कर सके, हर्षित प्रखर प्रबोध ॥ अलन्कार रस छन्द सब, उत्तम गहने जान। काया सच सुन्दर नही, कौन करेगा मान ॥ नारि दर्शना भव्य मन, शुभ्र सुलभ परिधान । भाल एक बिन्दी सहज़, सब गहनों की खान ॥ स्वर्ण अलन्क्रत तन जडे, माणिक और पुखराज भाव कर्म से हीन हो, नारि न सुन्दर साज ॥ भाव प्रबल,भाषा सरल, विषय प्रखर श्रुति -तथ्य । जन जन के मन बस सके, कविताई का सत्य ॥

सामयिक दोहे संजीव 'सलिल'

सामयिक दोहे संजीव 'सलिल' पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों. मैं ढूंढ-ढूंढ हरा, घर एक नहीं मिलता.. रश्मि रथी की रश्मि के दर्शन कर जग धन्य. तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य.. राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य. लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य.. कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान. जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान.. इस राक्षस राठोड का होगा सत्यानाश. साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश.. नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक. मैली चादर हो गयी, चुभा कुयश का डंक.. फंसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त. जैसे मरने जा रहा, कीचड में गज मत्त. कीचड में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी. कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई.. ****************** Acharya Sanjiv Salil http://divyanarmada.blogspot.com