कथा-गीत: मैं बूढा बरगद हूँ यारों... ---संजीव 'सलिल' कथा-गीत: मैं बूढा बरगद हूँ यारों... संजीव 'सलिल' * * मैं बूढा बरगद हूँ यारों... है याद कभी मैं अंकुर था. दो पल्लव लिए लजाता था. ऊँचे वृक्षों को देख-देख- मैं खुद पर ही शर्माता था. धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ. शाखें फैलीं, पंछी आये. कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको- कुछ बना घोंसला रह पाये. मेरे कोटर में साँप एक आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी. चिड़ियों के अंडे खाता था- ले गया सपेरा, किया सुखी. वानर आ करते कूद-फांद. झकझोर डालियाँ मस्ताते. बच्चे आकर झूला झूलें- सावन में कजरी थे गाते. रातों को लगती पंचायत. उसमें आते थे बड़े-बड़े. लेकिन वे मन के छोटे थे- झगड़े ही करते सदा खड़े. कोमल कंठी ललनाएँ आ बन्ना-बन्नी गाया करतीं. मागरमाटी पर कर प्रणाम- माटी लेकर जाया करतीं. मैं सबको देता आशीषें. सबको दुलराया करता था. सबके सुख-दुःख का साथी था- सबके सँग जीता-मरता था. है काल बली, सब बदल गया. कुछ गाँव छोड़कर शहर गए. कुछ राजनीति में डूब गए- घोलते फिजां में ज़हर गए. जंगल काटे, पर्वत खोदे. सब ताल-तलैयाँ पूर