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Showing posts from June 16, 2010

कथा-गीत: मैं बूढा बरगद हूँ यारों... ---संजीव 'सलिल'

कथा-गीत: मैं बूढा बरगद हूँ यारों... ---संजीव 'सलिल' कथा-गीत: मैं बूढा बरगद हूँ यारों... संजीव 'सलिल' * * मैं बूढा बरगद हूँ यारों... है याद कभी मैं अंकुर था. दो पल्लव लिए लजाता था. ऊँचे वृक्षों को देख-देख- मैं खुद पर ही शर्माता था. धीरे-धीरे मैं बड़ा हुआ. शाखें फैलीं, पंछी आये. कुछ जल्दी छोड़ गए मुझको- कुछ बना घोंसला रह पाये. मेरे कोटर में साँप एक आ बसा हुआ मैं बहुत दुखी. चिड़ियों के अंडे खाता था- ले गया सपेरा, किया सुखी. वानर आ करते कूद-फांद. झकझोर डालियाँ मस्ताते. बच्चे आकर झूला झूलें- सावन में कजरी थे गाते. रातों को लगती पंचायत. उसमें आते थे बड़े-बड़े. लेकिन वे मन के छोटे थे- झगड़े ही करते सदा खड़े. कोमल कंठी ललनाएँ आ बन्ना-बन्नी गाया करतीं. मागरमाटी पर कर प्रणाम- माटी लेकर जाया करतीं. मैं सबको देता आशीषें. सबको दुलराया करता था. सबके सुख-दुःख का साथी था- सबके सँग जीता-मरता था. है काल बली, सब बदल गया. कुछ गाँव छोड़कर शहर गए. कुछ राजनीति में डूब गए- घोलते फिजां में ज़हर गए. जंगल काटे, पर्वत खोदे. सब ताल-तलैयाँ पूर

लो क सं घ र्ष !: हिंदी ब्लॉगिंग की दृष्टि से सार्थक रहा वर्ष-2009- अंतिम भाग

इसी प्रकार वर्ष -2009 में मेरी दृष्टि कई अजीबो - गरीब पोस्ट पर गई । मसलन - एक हिंदुस्तानी की डायरी में 10 फरवरी को प्रकाशित पोस्ट - हिंदी में साहित्यकार बनते नहीं , बनाए जाते हैं। प्रत्यक्षा पर 26 मार्च को प्रकाशित पोस्ट - तैमूर तुम्हारा घोड़ा किधर है ? विनय पत्रिका में 27 मार्च को प्रकाशित बहुत कठिन है अकेले रहना। निर्मल आनंद पर 05 फरवरी को प्रकाशित आदमी के पास आँत नहीं है क्या ? छुट-पुट पर 02 जुलाई को प्रकाशित पोस्ट - इंटरनेट ( अन्तरजाल ) का प्रयोग मौलिक अधिकार है। सामयिकी पर 09 जनवरी को प्रकाशित आलेख , जमाना स्ट्राइसैंड प्रभाव का आदि। ये सभी पोस्ट शीर्षक की दृष्टि से ही केवल अचंभित नहीं करते बल्कि विचारों की गहराई में डूबने को विवश भी करते हैं। कई आलेख तो ऐसे हैं जो गंभीर विमर्श को जन्म देने की गुंजाइश रखते हैं। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, कि वर्ष -2007 में हिन्दी ब्लॉग की संख्या लगभग पौने चार हजार के आस-पास थी जबकि महज दो वर्षों के भीतर चिट्ठाजगत के आँकड़ों के अनुसार सक्रिय हिन्दी चिट्ठ
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