नवगीत: आचार्य संजीव 'सलिल' बैठ मुंडेरे कागा बोले काँव, काँव का काँव. लोकतंत्र की चौसर शकुनी चलता अपना दाँव..... * जनता द्रुपद-सुता बेचारी. कौरव-पांडव खींचें साड़ी. बिलख रही कुररी की नाईं कहीं न मिलता ठाँव... * उजड़ गए चौपाल हुई है सूनी अमराई. पनघट सिसके कहीं न दिखतीं ननदी-भौजाई. राजनीति ने रिश्ते निगले सूने गैला-गाँव... * दाना है तो भूख नहीं है. नहीं भूख को दाना. नादाँ स्वामी, सेवक दाना सबल करे मनमाना. सूरज अन्धकार का कैदी आसमान पर छाँव... *