कवितायें प्रो. वीणा तिवारी कभी-कभी कभी-कभी ऐसा भी होता हैकोई अक्स, शब्दया वाक्य का टुकडारक्त में घुल-मिल जाता है। फ़िर उससे बचने को कनपटी की नस दबाओ उँगलियों में कलम पकडो या पाँव के नाखून सेधरती की मिट्टी कुरेदो वह घड़ी की टिक-टिक-साअनवरत शिराओं में दौड़ता-बजता रहता है. कभी-कभी ऐसा क्यों होता है? ************************************ क्या-क्यों? क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? इस 'क्या' और 'क्यों' को न तो हम जानना चाहते हैं न ही जानकर मानना बल्कि प्रश्न के भय से उत्तर की तरफ पीठ करके सारी उम्र नदी की रेत में सुई तलाशते हैं. ************************* मन दूसरों की छोटी-छोटी भूलें आँखों पर चढी परायेपन की दूरबीन बड़े-बड़े अपराध दिखाती है जिनकी सजा फांसी भी कम लगती है अपनों की बात आने पर ये मन भुरभुरी मिट्टी बन जाता है जिसमें वह अपराध कहीं भीतर दब जाता है. फिर सजा का सवाल कहाँ रह जाता है? ************************************** बसंतोत्सव पर विशेष श्री जयदेव रचित गीत गोविन्द महीयसी महादेवी वर्मा छाया सरस बसंत विपिन में, करते श्याम विहार. युवती जनों के संग रास रच करते श्याम व