जिन्होंने मेरी फिल्म सारांश देखी होगी, उन्हें अनुपम खेर अभिनीत वह दृश्य जरूर याद होगा, जिसमें वह विदेश में मारे गए अपने इकलौते बेटे का अस्थि कलश लेने कस्टम के दफ्तर आता है और उससे घूस मांगी जाती है। 1983-84 का वह समय एशियाड का समय था, जब घर में टीवी होना बड़ी बात थी। हर व्यक्ति को मनोरंजन के उस जादू के बक्से की तलाश थी। कस्टम के दफ्तरों में टीवी के आयात को लेकर काफी गोरखधंधे होते थे। महाराष्ट्र के एक स्कूल का अवकाश प्राप्त गांधीवादी शिक्षक अनुपम खेर निराशा के दलदल में डूबकर कस्टम अधिकारी पर चिल्लाता है, ‘मैं यहां टीवी लेने नहीं, अपने मरे हुए बेटे की चिता की राख लेने आया हूं। क्या मैं बेटे की अस्थियों के लिए भी घूस दूं?’ कस्टम अधिकारी कहता है कि उससे गलती हो गई। वह शिक्षक को बताता है कि वह उनका शिष्य रह चुका है। उसके बाद अनुपम का संवाद है कि ‘भूल तो हमसे ही हो गई। मैं ही तुम्हें सही शिक्षा नहीं दे पाया।’ सारांश का वह दृश्य मेरे सबसे प्रिय दृश्यों में से एक है, जिसने मुल्क को उसका बदसूरत चेहरा दिखाया था। कुछ लोगों ने गांधीवादी अन्ना हजारे के आंदोलन को शत्रुता की धारणा से जोड़ दिया, जो