हॉकी -'हिंदी'' पीती अपमान का गरल ! एक दिन हॉकी मिली ; क्षुब्ध थी ,उसे रोष था, नयन थे अश्रु भरे मन में बड़ा आक्रोश था . अपमान की व्यथा-कथा संक्षेप में उसने कही ; धिक्कार !भारतवासियों पर उसने कही सब अनकही . पहले तो मुझको बनाया देश का सिरमौर खेल ; फिर दिया गुमनामियों के गर्त में मुझको धकेल . सोने से झोली भरी वो मेरा ही दौर था , ध्यानचंद से जादूगर थे मेरा रुतबा और था . कहकर रुकी तो कंधे पर मैं हाथ रख बोली सुनो अब बात मेरी हो न यूँ दुखी भोली . अरे क्यों रो रही है अपनी दुर्दशा पर ? कर इसे सहन मेरी तरह ही पीती रह अपमान का गरल मैं ''हिंदी'' हूँ बहन ! मैं'' हिंदी '' हूँ बहन !! शिखा कौशिक [हॉकी -हमारा राष्ट्रीय खेल ]