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Showing posts from June 29, 2010

लो क सं घ र्ष !: अपने पिता की खोज कीजिये

कम्पनियाँ हमेशा ग्राहक की जेब पर नज़र रखती है तथा नये-नये शिगूफ़े खिलाती हैं। खास तौर से युवा वर्ग की भावनाओं को भुनाती हैं। ‘वैलेनटाइन डे‘ के बाद अब ‘फादर्स डे‘ का क्रेज पैदा कर रहीं हैं। विज्ञान को आधार बना कर यह उकसावां दे रही हैं कि यदि असली पिता को पहचानना है तो डी0एन0ए0 टेस्ट कराइये। दिल्ली स्थित कम्पनी ‘इडियन बायोसेंसेस‘ तथा एक अन्य कम्पनी ‘पेटेरनिटी टेस्ट इंडिया‘ ने पितृत्व-परीक्षण के लिये 25 प्रतिशत तक डिस्काउंट देने की घोषणा की है। यह बाज़ार अब तेज़ी से बढ़ रहा है। विज्ञान के कुछ आविष्कार और खोजें ऐसी है जिनसे समाज को नुकसान ज़रूर पहुँचा है, इसी कारण इन्हें अभिशाप कहा गया। वास्तव इनका दुरूपयोग करे (नादानी से या जान बूझ कर) तो यह प्रयोगकर्ता की ग़लती है। विज्ञान का कोई दोष नहीं है। हिरोशिमा-नागासकी का बंम काण्ड हो, चेर्नेबल का रैडियेशन, भोपाल गैस काण्ड, अल्ट्रासाउन्ड द्वारा गर्भस्थ कन्या भ्रूण का पता लगा कर उसकी हत्या करके समाज के लिंग अनुपात को बिगाड़ देना, इन सब बातों में विज्ञान का क्या दोष है ? ग़ौर कीजिये भरे-पूरे परिवार में विश्वास के साथ सभी सुख शान्ति से रह रहे है। एक युवा पुत्

चिड़िया दीदी..

चिड़िया दीदी चू चू करके॥ पास हमारे आती है॥ होत भिनौखा पास बैठ कर॥ मुझको रोज़ जगाती है॥ उठ जाता हूँ बोली सुन कर॥ मुझको प्यारी लगती है॥ बड़े लोग जब पास बुलाते ॥ उनसे दूर फुदकती है॥ कभी कभी वह मुह बिचका के॥ मुझको बहुत चिढाती है॥ प्रतिदिन मेरे आँगन में॥ दाना चुगने आती है॥ जब मै रूठ के रोने लगता॥ मुझको चुप कराती है॥ मै जब हंसता फुदक फुदक के॥ मुझसे खूब बतलाती है॥

समझौता और संघर्ष का नाम है सिनेमा

विवेका बाबाजी की मौत ने हमें एक बार फिर गहन चिंतन के लिए मजबूर कर दिया है, क्या हकीकत में यह आत्महत्या थी? या हत्या ? अब इस बात से बहुत भारी फर्क पड़ने वाला नहीं है क्योंकि हर सवाल का जवाब विवेका के साथ ही दफ़न हो चुका है और जो इसके लिए गुनाहगार है, वो शरीफों की बिसात में सबसे आगे खड़ें होंगे. विवेका अपने घरवालों से दूर रखकर संघर्ष कर रही थी और सच तो ये है की उसके संघर्ष के दिन अब ख़त्म हुए थे ऐसे में उसके पास जीने की काफी वजह थी.लेकिन इस तरह से सब कुछ ख़त्म कर देना यह विवेका का उठाया कदम कभी नहीं हो सकता. फ़िल्मी दुनिया बढ़ी ही चमक दमक से लोत पोत है जिसके लिबासों के नीचे अनगिनत लोगों की मिटने के निशाँ है वो कहते है है न की जो चीज़ जितनी जायदा सुन्दर दिखाई देती है उसके बनने की दास्ताँ उतनी ही भयानक होती है. आज जिस तरह से युवा बर्ग फिल्मों एवं ग्लेमर के प्रति ललायित हो रहा है उसका जीता जागता उदाहरण मैंने 2009 में मुंबई में देखा. मैं एक न्यूज़ चैनेल के काम से मुंबई गया हुआ था मैंने देखा की हर एक फिल्म स्टूडियो और ऑफिस के बाहर भारी संख्या में ऐसे युवा खड़े थे जिनके पास अन्दर जाने या क