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Showing posts from June 28, 2011

अच्छा लिखनेवालों की कीमत समाज में निर्धारित होती है!

कॉपीराइट के मसले पर पर्यावरणविद   अनुपम मिश्र   से   संजय तिवारी   की बातचीत अनुपम मिश्र  के नाम के साथ पर्यावरणविद का विशेषण हालांकि आम प्रचलन में है, पर उन्‍हें जानने वाले जानते हैं कि वे एक बेहतरीन पत्रकार हैं, पत्र लेखक हैं, मददगार इंसान हैं और इस बेदिल दिल्‍ली में एक दुर्लभ शख्‍सीयत हैं। गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में, जहां वे काम करते हैं – पिछले कई दशकों से एक ही कुर्सी पर बैठते हैं, जिस पर लिखा है : पावर विदाउट परपस। 90 के दशक में जब उनकी दो किताबें एक साथ प्रकाशित हुईं, तो उन पर किसी का कॉपीराइट नहीं था। राजस्‍थान की रजत बूंदे और आज भी खरे हैं तालाब। शीना उनकी सहयोगी लेखिका थी। मुखपृष्‍ठ पर लेखक का नाम नहीं था। अंदर बहुत छोटे फॉन्‍ट में अनुपम जी का नाम लिखा था और कॉपीराइट की जगह एक दो वाक्‍य लिखे थे : इस पुस्‍तक में छपी सामग्री का उपयोग कहीं भी किसी भी रूप में किया जा सकता है। स्रोत का उल्‍लेख करेंगे तो अच्‍छा लगेगा। आज भी खरे हैं तालाब की अब तक एक लाख से ज्‍यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। मॉडरेटर कॉपीराइट को लेकर आपका न