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Showing posts from December 31, 2008

स्वागतम नववर्ष का

स्वागतम नूतन साल तुम्हारा है, झंकृत हृदय हमारा है। स्वागतम........ बीते पल जब तुम आए थे ऐसा ही स्वागत पाए थे होंठों से मुस्काए थे और नज़रों से इतराए थे तुम्हारा आगम कितना प्यारा है। स्वागतम.... ऐसे ही तुम आओ अधरों पर हँसी खिलाओ मन का गीत कोई गुनगुनाओ नूतन सपना कोई सजाओ ऐसा न्यारा ख्वाब तुम्हारा है। स्वागतम..... मन की पीडा को हम भूलें निर्झर लहरों में ही झूलें उठ के असमान को छूलें मरहम बन जायें सब शुलें कैसा जीवन नृत्य तुम्हारा है॥ स्वागतम नूतन साल तुम्हारा है, कैसा झंकृत ह्रदय हमारा है। तुम्हारा आगम कितना प्यारा है, ऐसा न्यारा ख्वाब तुम्हारा है।

फिट रहने के लिए सेक्स जरुरी- केली ब्रुक

हॉलीवुड एक्‍ट्रेस केली ब्रुक ने सेक्‍स को अपनी खूबसूरती का राज बताया है। ब्रिटिश अखबार द सन को दिए एक इंटरव्यू में केली ने बताया कि नियमित सेक्‍स से उनकी बॉडी टोन्‍ड बनी रहती है और उनकी खूबसूरती भी निखरती है। उन्‍होंने इंटरव्यू में खुलासा किया कि रगबी प्लेअर डैनी कैप्रियानी उनके बॉयफ्रेंड हैं और वो पिछले कुछ वर्षों से उन्‍हीं के साथ रह रही हैं। उन्‍होंने बताया कि अपनी बॉडी को फिट बनाए रखने के लिए उन्‍होंने कभी भी डायटिंग का सहारा नहीं लिया।

मैं मुर्दा बोल रहा हूँ.....

मेरा नाम केशव है। अरे-अरे आप घबराइये मत, मैं मर चुका हूँ। सुना है हमारे देश में मुर्दों की बहुत सुनी जाती है , इसलिए यमराज जी से थोडी सी मोहलत मांग के आपसे मुखातिब हूँ। हाँ मेरा नाम केशव था, मैं उत्तरप्रदेश और बिहार के बॉर्डर बनारस का रहने वाला था। कुछ सालों से रोजी-रोटी के लिए बॉम्बे के वरली इलाके में मेरी खोली थी। जब राज ठाकरे के गुंडों ने भैय्याओं की पिटाई, चटाई समझकर कर रहे थे तो घर से बार-बार फोन आने लगा की नौकरी छोड़ कर चले आओ। गुंडों का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था, घर पर बाबूजी बीमार रहने लगे, मुझे लगा की घर चले जाना चाहिए। लेकिन आप ये मत सोचिये की मैं डर गया था। बस बाबूजी की चिंता सताए जा रही थी, इसलिए विगत २६ नवम्बर को मैं घर के लिए ट्रेन पकड़ने वीटी अरे वोही सीएसटी स्टेशन पर पहुँच गया। रात के करीब ११ बजे मेरी ट्रेन थी। मैंने सोचा की चलो कुछ खा-पि लिया जाए। मैं जैसे ही आगे बढ़ा तो देखा की एक गुंडा हांथों में बन्दूक लिए अंधाधुंध गोलियां बरसता मेरी तरफ़ चला आ रहा था। अचानक मैंने सोचा ये कौन है ? फिर मैं कुछ न सोच पाया , होश आया तो ख़ुद दो मृत हालत में मुन्सिपर्टी की बस में ठुसा ह

अनकही

वीणा विज 'उदित' आईने के सामने अपने आपको निहारती लेखा अपने रूप सौन्दर्य पर स्वंय ही मुग्ध हुए जा रही थी। अपनी कदली स्तम्भ सी सुन्दर अनावृत टाँगें और स्कॉर्फ के बंधन से मुक्त लम्बी केशराशि को देखकर वह स्वयं को किसी सिनेतारिका से कम नहीं समझती थी। उसकी सहेलियाँ भी तो उसे कभी किसी सिनेतारिका तो कभी किसी सिनेतारिका के नाम से बुलाती थीं। परिस्थितियाँ और परिवेश किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं और उसके अनुरूप ही उसमें स्वभाव व चरित्र को गढ़ने लग जाते हैं। लेखा की चाल ढाल में भी एक ग़रूर छलकने लगा था। छरहरा बदन उस पर से लम्बा कद उसे भीड़ में भी एक पहचान दे जाता था। उसकी अदाओं में लोच व चेहरे पर एक दमकती आभा बिखरी रहती। होंठों की मुस्कान के साथ उसकी आँखें भी मुस्कुरा उठतीं। तभी तो वह एकांत में भी शरमा गई जिससे सारे शरीर का रक्त उसके चेहरे पर चढ़कर सिंदूर बिखेर उठा। स्कूल में प्रतिदिन उसकी प्रशंसा के पुल बाँधे जाते फलस्वरूप खुशी के मारे उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। आज के युग में युवावर्ग की प्ररेणा का स्त्रोत फिल्मी एक्टर्स ही हैं। बाजारवाद उसको बहुत ब

गरीबी....महसूसना कैसा होता है........????

गरीबी....महसूसना कैसा होता है........???? गरीबी को देखा भी है....और महसूस भी किया है.....मगर इन दोनों बातों और ख़ुद के भोगने में बहुत अन्तर है....इसलिए गरीबी जीना....और महसूस करने में हमेशा एक गहरी खायी बनी ही रहेगी....लाख मर्मान्तक कविता लिख मारें हम....किंतु गरीबी को वस्तुतः कतई महसूस नहीं कर सकते हम...बेशक समंदर की अथाह गहराईयाँ नाप लें हम....!!!क्या है गरीबी.....अन्न के इक-इक दाने को तरसती आँखें...? कि बगैर कपडों के ठण्ड से ठिठुरती देह....??कि शानदार छप्पनभोगों का लुत्फ़ उठाते रईसों को ताकती टुकुर-टुकुर नज़रें....!!!कि इलाज़ के अभाव में इक ज़रा से बुखार से मौत का ग्रास बन जाती अमूल्य जिंदगियां......??कि नमक के साथ खायी जाने वाली रोटी या भात....??कि टूटे हुए छप्परों से बेतरह टपकता पानी....और बेबस-ताकती पथराई-सी आँखें....?? कि भयंकर धुप में कठोरतम भूख से बेजान शरीर से अथक और पीडादायी श्रम करते मामूली-से लाचार इन्सान....??कि जरा-सी गलती-भर से अपमानजनक टिप्पणियों तथा बेवजह मार का शिकार हो जाना.....??कि ज़रा-ज़रा-सी बात पर माँ-बहन की गंदी गालियों की बौछारें...??किकुछ सौ रूपयों में खरीद ल

अरे भाई...जिंदगी तो वही देगी....जो...........!!

अरे भाई...जिंदगी तो वही देगी....जो...........!! हम क्या बचा सकते हैं...और क्या मिटा सकते हैं......ये निर्भर सिर्फ़ एक ही बात पर करता है....कि हम आख़िर चाहते क्या हैं....हम सब के सब चाहते हैं....पढ़-लिख कर अपने लिए एक अदद नौकरी या कोई भी काम....जो हमारी जिंदगी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त धन मुहैया करवा सके....जिससे हम अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें...तथा शादी करके एक-दो बच्चे पैदा करके चैन से जीवन-यापन कर सकें...मगर यहाँ भी मैंने कुछ झूठ ही कह दिया है....क्यूंकि अब परिवार का भरण पोषण करना भी हमारी जिम्मेवारी कहाँ रही....माँ-बाप का काम तो अब बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करना और उन्हें काम-धंधे पर लगा कर अपनी राह पकड़ना है....बच्चों से अपने लिए कोई अपेक्षा करना थोडी ना है....वो मरे या जिए बच्चों की बला से.....खैर ये तो विषयांतर हो गया....मुद्दा यह है कि हम जिन्दगी में क्या चुनते हैं...और उसके केन्द्र में क्या है....!!........और उत्तर भी बिल्कुल साफ़ है....कि सिर्फ़-व्-सिर्फ़ अपना परिवार और उसका हित चुनते हैं...इसका मतलब ये भी हुआ कि हम सबकी जिन्दगी में समाज कुछ नहीं....और उसकी उपादे