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Showing posts from November 20, 2009

लो क सं घ र्ष !: नारी सशक्तीकरण का मूलमंत्र

आप कहते हैं तो कहा करें! मैं अपने दोस्तों और अपनी बात जरूर करूंगा, अभी हाल ही में मेरे दोस्त सत्येन्द्र राय सपत्नीक मेरे घर आये और हम दोनों दम्पत्तियों के बीच बात शुरू हुई। मेरी पत्नी की तरह सत्येन्द्र राय की पत्नी कामकाजी महिला हैं। दोनों प्राप्त होने वाला अपना वेतन अपने घर पर खर्च करती हैं। यह बात मेरे साथ मेरे मित्र भी स्वीकार करते हैं। घर का खर्च उठाना ही नहीं बल्कि घर के कामकाज की भी जिम्मेदारी दोनों बखूबी संभालती हैं। यह तारीफ मैं अपनी और अपने मित्र की पत्नी को खुश करने के लिए नहीं कर रहा हूं बल्कि उनके सशक्तीकरण पर कुछ सवाल उठा रहा हूं। हम दोनों मित्र अपनी पत्नियों को शायद ही कभी कुछ कहते हों सिवाय उनकी तारीफ के, क्योंकि वह तारीफ के लायक हैं। जब बात शुरू हुई तो हम दोनों ने खुले मन स्वीकार किया कि हम खुले मन से निःसंकोच महिला सशक्तीकरण की बात करते हैं लेकिन अपने घर की महिलाओं की समर्पण की भावना को सहज रूप मेे स्वीकार कर लेते हैं और उनको जी-तोड़ मेहनत से बचाने का प्रयास नहीं करते। इसके पीछे हमारी सोच यह भी हो सकती है कि परिवार रूपी गाड़ी के दोनों पहिये सुगमता से चलते रहें तो गाड़ी

नवगीत: कौन किताबों से/सर मारे?... आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत: आचार्य संजीव 'सलिल' कौन किताबों से सर मारे?... * बीत गया जो उसको भूलो. जीत गया जो वह पग छूलो. निज तहजीब पुरानी छोडो. नभ की ओर धरा को मोड़ो. जड़ को तज जडमति पछता रे. कौन किताबों से सर मारे?... * दूरदर्शनी एक फलसफा. वही दिखा जो खूब दे नफा. भले-बुरे में फर्क न बाकी. देख रहे माँ में भी साकी. रूह बेचकर टका कमा रे... कौन किताबों से सर मारे?... * बटन दबा दुनिया हो हाज़िर. अंतरजाल बन गया नाज़िर. हर इंसां बन गया यंत्र है. पैसा-पद से तना तंत्र है. निज ज़मीर बिन बेच-भुना रे... *