हिन्दी में दलित-साहित्य का इतिहास साहित्य की जनतांत्रिक परम्परा तथा भाषा के सामाजिक आधार के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है। इसे सामंती व्यवस्था के अवसान, जो निश्चित ही पुरोहितवाद के लिए भी एक झटका साबित हुआ तथा समाज में जनतांत्रिक सोच के उदय, भले ही रूढ़िग्रस्त ही क्यों न हो, के साथ ही प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में भी देखा जा सकता है। यहाँ हम यह स्वीकार करते चलें कि अन्यायपरक वर्ण-व्यवस्था पर आघात-दर-आघात करने वाला कविता का भक्ति-आंदोलन, ज्योतिबा फुले द्वारा आरम्भ किया गया सामाजिक पुनर्निर्माण का ऐतिहासिक अभियान, वर्ण-व्यवस्था के जुल्म से निजात पाने की इच्छा तथा प्रतिरोधस्वरूप बड़ी संख्या में संभव हुआ धर्मांतरण-जैसी दूरगामी प्रभावों वाली घटनाएँ सामंती व्यवस्था के काल में ही घटित हुई। भारतीय समाज, उसमें भी ज़्यादा अकल्पनीय दमन से त्रस्त दलित वर्ग को महामुक्ति के चिरस्मरणीय दूत के रूप में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का मिलना (मुक्ति-पथ पर जिनके कदमों के निशान बहुत गहरे हैं) एक सामंत का ही अवदान है। मानववादी उदारता से उपजी सहानुभूति की यह प्रवृत्ति ही साहित्य में भी