मुक्तक / चौपदे आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / संजिव्सलिल.ब्लॉग.सीओ.इन सलिल.संजीव@जीमेल.com साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है. काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है. 'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर. रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है. ****************************8 ll नव शक संवत, आदिशक्ति का, करिए शत-शत वन्दन ll ll श्रम-सीकर का भारत भू को, करिए अर्पित चन्दन ll ll नेह नर्मदा अवगाहन कर, सत-शिव-सुन्दर ध्यायें ll ll सत-चित-आनंद श्वास-श्वास जी, स्वर्ग धरा पर लायें ll **************** दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया. दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया. दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं- दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया. ****************************************** कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा. जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा? बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा- पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.