विश्व पुस्तक मेला का समापन तो हो गया लेकिन कई सवाल बेजवाब ही रह गए। हिंदी के वर्त्तमान और भविष्य के बारे में कई बातें भी हुई लेकिन बस उम्मीदों के आलावा हिंदी के पास शायद अब कुछ भी नहीं है।हिंदी को लेकर मेरी फ़िक्र बयां करता यह लेख- मैं ऐसे दर्ज़नों लोगों को जानता हूँ जो इंग्लिश की किताबें खरीदते है लेकिन उसे पढ़ते नहीं है,वो दुर्जोय दत्ता के ''होल्ड माय हैण्ड'' या ''अफकोस आई लव यू'' जैसे रंगीन कवर पेज देखकर,लाइफ स्टाइल के लिए वो किताबें खरीद लेते है।हिंदी में अच्छा कंटेंट उपलब्ध नहीं है ऐसा बिलकुल नहीं है हिंदी में अच्छा लेखन हो रहा है लेकिन पाठकों की विचारधारा ही हिंदी को लेकर बदल चुकी है वो लेखक की किताबों को फ्री पाने की जोड़तोड़ सीख चुके है। नए लेखक होने का यह मतलब बिलकुल नहीं होता की उसकी किताबें महज गिफ्ट में देने के लिए छापी गयी है। जो हिंदी और इंग्लिश दोनों पढ़ते है वो बताएं की उन्होंने ऑफ़कोर्स आई लव यू में ऐसा क्या पढ़ लिया जो उनकी 5 लाख कॉपी बिक गयी,यह बड़ा ही औसत लेखन है। मेट्रो सिटीज में इंग्लिश बहुत बिक रही है,लेकिन हमारे यहाँ कम से क