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Showing posts from December 6, 2012

तलाश उर्फ खूबसूरत आत्मा का खूनी बदला !!

आमिर   के बारे में कहा जाता है वे पटकथा पढ़कर किसी फिल्म के लिए हां करते हैं, आमिर इस मामले में बहुत सजग माने जाते हैं। आमिर की फिल्में कुछ अलग होती हैं, उनके ट्रीटमेंट, कहानी आदि सब में कुछ नयापन होता है। आमिर पर भरोसा करने वाले तलाश देखने भी इसी उम्मीद से जायेंगे कि आमिर अपने छवि पर खरा उतरेंगे। पर यह फिल्म आमिर की साख के अनुरूप बिलकुल नहीं है। हाल के कुछ वर्षों में सिनेमा ने दर्शकों की पसंद को समृद्ध भी किया है, आमिर भी अच्छा सिनेमा देने के लिए, दर्शकों की रूचि परिष्कृत करने के लिए जाने जाते हैं, लिहाजा यह फिल्म उल्टी पड़ गयी है। दर्शक को आमिर से यह उम्मीद तो नहीं ही होगी। इस फिल्म में आप कहानी की ‘तलाश’ करते रह जायेंगे। ‘तलाश’ फिल्म एक भुतहा या हारर फिल्म नहीं भी कही जाए पर आत्मा के विश्वास पर केंद्रित तो है ही। ‘तलाश’ की कहानी फिल्म स्टार अरमान कपूर की कार समन्दर में डूब जाती है। कार खुद अरमान चला रहा था, वह आत्महत्या नहीं कर सकता था फिर ऐसा क्या हुआ कि रात में सुनसान सडक पर तेज गति से दौड़ती हुई गाड़ी अचानक समंदर की ओर घूम गयी और सीढियां तोड़ते हुए समंदर में जा घुसी…! क्यो

शाहरुख का विस्तार और नियति की सीमाएं

धन एक अजीब उद्दीपक है। यह हठ को अकड़ देता और बुद्धि को नरम करता है, जबकि इसका उल्टा ज्यादा उपयोगी हो सकता था। इसमें थोड़ी-सी चेहरे की पहचान भी मिला लीजिए, जिसके लिए सेलिब्रिटी बड़े बेकरार रहते हैं और प्रतिमा-भक्त जिसकी पेशकश करते हैं। और फिर जो कॉकटेल बनता है, वह इतना प्रचंड होता है कि ठीक आपके चेहरे पर फटने में इसे बस एक पल ही लगता है।  चूंकि सेलिब्रिटी दोष स्वीकार करना अपनी सेहत के लिए हानिकारक मानते हैं, इसलिए ढिठाई भी एक ही कदम दूर होती है। हर सुपरस्टार इस बीमारी का शिकार नहीं होता, लेकिन मौके-बेमौके उन्माद का हमला होने पर बचाव के चंद रास्ते ही होते हैं। मैं शाहरुख खान से दो बार मिला हूं। एक बार हाल ही में। और तीसरे मौके पर संभवत: कुछ क्षण के लिए। निश्चित तौर पर यह निकटता का सबूत नहीं है, इसलिए इसे बस जान-पहचान ही रहने दीजिए। परंतु मैं जितना भी थोड़ा-बहुत जानता हूं, उससे पहले प्रभाव की पुष्टि होती है।  वे बेहद दिलकश और बुद्धिमान शख्स हैं। उनका बेहतरीन गुण है मृदु हास्यबोध। तीखी और यहां तक कि कटु टिप्पणी इस हास्यबोध के आड़े आती है। लेकिन वे रिश्तों पर चोट पहुंचाए बगैर दुनिया पर हंस

‘कोल’गेट की काली राजनीति

मान लें कि आप एक विशाल संयुक्त परिवार में रहते हैं। परिवार के सदस्यों में मतभेद हैं, फिर भी वे एक इकाई की तरह साथ रहते हैं। परिवार एक विशाल ज्वैलरी शॉप का मालिक है, जो बहुमूल्य रत्न-आभूषणों और पारिवारिक खजाने से भरपूर है। इस शॉप को चलाने के लिए परिवार एक मैनेजर को नियुक्त करते हुए उसे इसका पूरा नियंत्रण सौंप देता है।  यहां तक कि मैनेजर को इन गहनों को बेचना भी नहीं पड़ता। वह तो चयन संबंधी कुछ मानदंडों (जो मैनेजर द्वारा खुद ही तैयार किए गए हैं) की कसौटी पर जिसे चाहे हीरे-मोती जैसे ये बेशकीमती नगीने दे सकता है। इस तरह मैनेजर अपने पसंदीदा लोगों को रेवड़ियां बांट सकता है और चाहे जिसे ठुकरा सकता है।  जरा सोचिए कि ऐसी स्थिति में कोई भी मैनेजर क्या करेगा? जाहिर तौर पर वह पहले अपने मित्रों व सगे-संबंधियों को बुलाकर यह सुनिश्चित करेगा कि उन्हें पर्याप्त मात्रा में रत्न-आभूषण मिल जाएं। मैनेजर उन लोगों को भी गहने वगैरह बांटेगा, जो उसे बदले में नकद लाभ या उपहार वगैरह दे सकें। इस तरह जल्द ही दुकान लुट जाएगी और परिवार को भारी घाटा झेलना होगा। इसके बाद, मान लें कि परिवार पहले मैनेजर को बाहर का रास्त