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Showing posts from March 19, 2010

लो क सं घ र्ष !: मनुष्य जाति की मित्र नजदीकी पक्षी गौरैया

विश्व गौरैया दिवस पर गौरैया हमारे जीवन का एक अंग है मनुष्य जहाँ भी मकान बनता है वहां गौरैया स्वतः जाकर छत में घोसला बना कर रहना शुरू कर देती है। हमारे परिवारों में छोटे छोटे बच्चे गौरैया को देख कर पकड़ने के लिए दौड़ते हैं उनसे खेलते हैं उनको दाना डालते हैं। हमारा घर गाँव में कच्चा बना हुआ है जिसकी छत में सैकड़ो गौरैया आज भी रहती हैं। घर के अन्दर बरामदे में एक छोटी दीवाल है। जिस पर हमारी छोटी बहन नीलम एक कप में पानी व चावल के कुछ दाने रख देती थी जिसको गौरैया आकर खाती थीं और पानी पीती थी। बहन की शादी के बाद भी वह परंपरा जारी है हमारा लड़का अमर और मैं पकड़ने के लिए आँगन में टोकरी एक डंडी के सहारे खड़ी कर देते थे, टोकरी के नीचे चावल के दाने डाल दिए जाते थे टोकरी वाली डंडी में रस्सी बंधी होती थी उस रस्सी का एक सिरा काफी दूर ले जा कर मैं और मेरा लड़का लेकर बैठते थे गौरैया चावल चुनने आती थी और टोकरी के नीचे आते ही रस्सी खींच देने से वह टोकरी के नीचे कैद हो जाती थी। टोकरी पर चद्दर डाल कर गौरैया पकड़ी जाती थी । गौरैया लड़का देखने के पश्चात उसको अपनी मम्मी के पास पहुंचा दो कहकर छोड़ देता था। इ

सपने बोए आंसू काटे

हर्ष मंदर उसके बेटे बाबू ने उसे घर के पीछे गौशाला में मरा हुआ पाया। कुसारा मल्लागौड़ ने पिछली रात कीटनाशक दवा पी ली थी और अपने आखिरी क्षणों में नि:शब्द छप्पर के नीचे पड़ा रहा, जहां कोई उसकी आवाज नहीं सुन सका। जिंदगी की अंतिम घड़ियों में वह बिल्कुल अकेला पीड़ा से कराह रहा था। यह बिल्कुल तय था कि जैसे उसने जिंदगी जी थी, ठीक वैसे ही अकेले मरना चाहता था। वह हमेशा अपनी यंत्रणाओं को अकेले सहते हुए परिवार के लिए रक्षा कवच बना रहा, लेकिन अंतत: उसने उन सबको अकेला छोड़ दिया। उस दुख के सामने उसने घुटने टेक दिए, जो हाल के वर्षो में हिंदुस्तान के गांवों में महामारी जैसा फैल रहा है। ऐसा भयानक अवसाद, जो 22,000 किसानों की जिंदगियां लील चुका है और खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। बाबू की उम्र मुश्किल से 19 बरस थी। अचानक उसने खुद को परिवार में सबसे बड़ा पाया। उसकी दादी और बुआ दहाड़ें मारकर रो रही थीं, लेकिन उसने हिम्मत से आंसुओं को रोके रखा। ‘अगर उसने हमें बताया होता तो हम उसका कर्ज चुकाने के लिए घर का एक-एक सामान बेच देते,’ कुसारा की बहन बिलख रही थी। आसपास इकट्ठा हुए गांव के लोगों ने कहा, ‘जब दूसरे हिम्मत

रामदेव का राजनीतिक रंग

अब बाबा रामदेव अपने असली रंग में दिख रहे हैं. बात करते हैं तो बार बार उत्साह को बनाये रखने की सलाह देते हैं. जयपुर, दिल्ली और जोधपुर में तीन सभाओं के दौरान उन्होंने कमोबेश एक बात ही कही कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को आगे बढ़ाना है और "चोर" "लुटेरे" "डाकुओं" से देश को मुक्त कराना है. यह विशेषण बाबा रामदेव किसके लिए इस्तेमाल कर रहे हैं यह बताने की जरूरत नहीं है. ये चोर लुटेरे और डाकू कोई और नहीं बल्कि इस देश के वही नेता हैं जिन्हें अपने योग शिविरों में बुलाकर रामदेव अपना कद बढ़ाते रहे हैं. मैंने कहा बाबा रामदेव अब अपने असली रंग में हैं. थोड़ा वक्त लगा लेकिन वे आखिरकार देश को सुधारने और देश का स्वाभिमान जगाने निकल ही पड़े. आस्था टीवी चैनल पर कनखल के आश्रम से जब उन्होंने पहली बार अपने योग शिविर का लाईव प्रसारण शुरू किया था संयोग ही है कि वह लाईव प्रसारण भी मैंने टीवी पर देखा था. कुल जमा दो तीन सौ लोग होते थे. कुछ दिनों तक बाबा ने यहीं से योग शिविर चलाया लेकिन अचानक ही जैसे योग क्रांति ने जन्म ले लिया. इसलिए बाबा ने बड़े शिविर आयोजित करने शुरू कर दिये.