वेद प्रताप वैदिक दारुल उलूम के जो दो-तीन ताजातरीन फतवे इधर विवादास्पद हो गए हैं, क्या वे इस लायक हैं कि उन पर ध्यान दिया जाए? जिन फतवों पर खुद इस्लामी लोग कन्नी काट रहे हैं और उर्दू अखबार जिनका मजाक उड़ा रहे हैं, उनका आम लोगों से क्या लेना-देना? ऐसे फतवों पर कुछ लिखा या बोला क्यों जाए? यह सवाल मोटे तौर पर सही मालूम पड़ता है, लेकिन जवाबी सवाल यह भी है कि हमारा मुस्लिम समाज बड़े भारतीय समाज का अभिन्न अंग है या नहीं? कोई ऐसी बात जिससे देश की 15-20 प्रतिशत आबादी गुमराह होती हो या पसोपेश में पड़ती हो या उसे नुकसान पहुंचता हो, उस पर मौन रहना कहां तक उचित है? और यह मामला सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नहीं है। जैसे फतवे दारुल उलूम या मिस्र के अल-अजहर विश्वविद्यालय से जारी होते हैं, वैसे ही धर्मादेश रोम से पोप जारी करते हैं। हिंदू और सिख मठाधीश भी किसी से पीछे नहीं हैं। जहां-जहां धर्म संगठित होता है, वह राज्य से भी ज्यादा राजनीति करता है। उसकी क्रूरता अपरंपार होती है। राज्य तो घोर अपराधी को सिर्फ फांसी पर लटकाता है, लेकिन धर्म सती को जिंदा जलाता है, ‘अपराधी की हत्या पत्थर मार-मारकर करता है