Skip to main content

Posts

Showing posts from May 19, 2010

जल सत्याग्रह पर बहस करें?

  तकनीकी समस्याओं के चलते  ''हिन्दुस्तान का दर्द''  में कुछ बदलाव किये जा रहे है जिसे कई लोगों को स्वीकार कर पाना थोडा मुश्किल होगा,लेकिन इसके सिवा कोई चारा नहीं था.. देश भर में जल सत्याग्रह चलाये जा रहे है तो क्यों न हम भी जल सुरक्षा के सकारात्मक और नकारात्मक पहुलओं पर बहस करें,आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा.

लो क सं घ र्ष !: बुद्धि जहाँ खत्म होती है, वहीँ पर हाथ चलने लगता है

आज बाराबंकी में बिजली की समस्या को लेकर उत्तेजित अधिवक्ताओं के एक समूह ने जिला मजिस्टे्ट श्री विकास गोठलवाल के कार्यालय में घुसकर जमकर तोड़ फोड़ की । कई वर्षों से बुद्धिजीवी तबके का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता गण हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं जिससे न्यायिक व्यवस्था ध्वस्त होने लगती है जबकि किसी भी समस्या का सामाधान अधिवक्ता समाज बड़े आसानी से कर देता है । जनता के हर तबके का आदमी किसी न किसी रूप में अधिवक्ताओं से सलाह लेकर ही कार्य करता है किन्तु आज कल अधिवक्ता समाज के कुछ लोग हिंसा पर उतारू ही रहते हैं इससे पूर्व कानपूर में अधिवक्ता वर्सेस पुलिस की मारपीट के कारण कई बार कार्य बहिष्कार हो चुका है सेन्ट्रल बार एसोशिएसन के चुनाव में भी कुछ अधिवक्ताओं ने मतपत्र फाड़ डाले और जम कर बवाल किया जबकि अधिवक्ताओं के पास प्रत्येक समस्या का विधिक उपचार मौजूद है उसका प्रयोग करना चाहिए । अधिवक्ताओं के

: संस्‍कृतगीतम्

मनसा सततं स्‍मरणीयम् वचसा सततं वदनीयम् ।। लोकहितं मम करणीयम् ।। न भोगभवने रमणीयम् न च सुखशयने शयनीयम् अहर्निशं जागरणीयम् लोकहितं मम करणीयम् ।। न जातु दु:खं गणनीयम् न च निजसौख्‍यं मननीयम् कार्यक्षेत्रे त्‍वरणीयम् लोकहितं मम करणीयम् ।। दु:खसागरे तरणीयम् कष्‍टपर्वते चरणीयम् विपत्तिविपिने भ्रमणीयम् लोकहितं मम करणीयम् ।। गहनारण्‍ये घनान्‍धकारे बन्‍धुजना ये स्थिता गह्वरे तत्र मया संचरणीयम् लोकहितं मम करणीयम् गेयसंस्‍कृतम् पुस्‍तकात् साभार गृहीत:

फतवों से क्या हासिल?

वेद प्रताप वैदिक  दारुल उलूम के जो दो-तीन ताजातरीन फतवे इधर विवादास्पद हो गए हैं, क्या वे इस लायक हैं कि उन पर ध्यान दिया जाए? जिन फतवों पर खुद इस्लामी लोग कन्नी काट रहे हैं और उर्दू अखबार जिनका मजाक उड़ा रहे हैं, उनका आम लोगों से क्या लेना-देना? ऐसे फतवों पर कुछ लिखा या बोला क्यों जाए? यह सवाल मोटे तौर पर सही मालूम पड़ता है, लेकिन जवाबी सवाल यह भी है कि हमारा मुस्लिम समाज बड़े भारतीय समाज का अभिन्न अंग है या नहीं? कोई ऐसी बात जिससे देश की 15-20 प्रतिशत आबादी गुमराह होती हो या पसोपेश में पड़ती हो या उसे नुकसान पहुंचता हो, उस पर मौन रहना कहां तक उचित है? और यह मामला सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नहीं है। जैसे फतवे दारुल उलूम या मिस्र के अल-अजहर विश्वविद्यालय से जारी होते हैं, वैसे ही धर्मादेश रोम से पोप जारी करते हैं। हिंदू और सिख मठाधीश भी किसी से पीछे नहीं हैं। जहां-जहां धर्म संगठित होता है, वह राज्य से भी ज्यादा राजनीति करता है। उसकी क्रूरता अपरंपार होती है। राज्य तो घोर अपराधी को सिर्फ फांसी पर लटकाता है, लेकिन धर्म सती को जिंदा जलाता है, ‘अपराधी की हत्या पत्थर मार-मारकर करता है

है फटी लंगोटी भारती के लाल की ।।

     आज की गंदी राजनीति में फंस कर बेहाल हुए देश की दशा का वर्णन बडे ही मार्मिक ढंग से कवि आर्त ने अपनी इन पंक्तियों में किया है । प्रस्‍तुत पंक्तियां महाकवि अनिरूद्धमुनि पाण्‍डेय 'आर्त' कृत हनुमच्‍चरितमंजरी महाकाव्‍य से ली गयी हैं । कहां वो सुराज्‍य जहां श्‍वान को भी मिले न्‍याय आज न्‍याय-देवि बिके धनिकों के हॉंथ हैं । मन्‍द पडी धर्म, सत्‍य, नीति की परम्‍परायें कर रहे ठिठोली तप-साधना के साथ हैं । परशीलहारी दुराचारिये निशंक घूमें किन्‍तु पतिरखवारे ठाढे नतमाथ हैं । चाह महाकाल की कि चाल कलिकाल की अचम्‍भा, हाय!  कौन सोच मौन विश्‍वनाथ हैं ।। सत्‍य अनुरागी हैं उटज में अभावग्रस्‍त किन्‍तु दूर से ही दिखें कोठियां दलाल की । चोरी, घूसखोरी, बरजोरी में ही बरकत है कोई ब्‍यर्थ क्‍यूं करे पढाई बीस साल की । पौंडी-पौंडी उठने का कौन इन्‍तजार करे वंचकों को चाहिये उठान तत्‍काल की । दूर से दमकता दुशाला दगाबाजियों का 'आर्त' है फटी लंगोटी भारती के लाल की ।। राजनीति की पुनीत वीथि आज पंकिल है क्षुद्र स्‍वार्थ-साधना में लीन ये जहान है । धूर्त, नीच, लम्‍पट, सदैव जो अनीतिरत लोक-धारणा मे वही बन रह