इससे यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिए कि ऊदा देवी का शौर्य और पराक्रम 1857 के महाविद्रोह की केन्द्रीय चेतना से सम्बद्ध नहीं था, यह कि उनकी शहादत मुक्ति के विराट स्वप्न को साकार करने की दिशा में दी गयी आहुति नहीं थी। उनकी शहादत को व्यक्तिगत प्रतिशोध की अभिव्यक्ति मानने वाले यकीनीतौर पर ऊदादेवी के क़द को छोटा करते हैं। साथ ही वे आज़ादी की इस विलक्षण लड़ाई में जनता के सभी हिस्सों की शिरकत के चमकीले यथार्थ को धुँधलाने की कोशिश भी करते हैं। मक्का पासी की शहादत हो या ऊदादेवी का बलिदान, इसके वृहत्तर सन्दर्भ का अनुमान इससे लग सकता है जितना कि इस महाविद्रोह के स्वरुप का मजाक उड़ाते हुए अंग्रेज इतिहासकारों का यह कहना कि ‘तब एक सिपाही भी अपने को राजा समझता था’ या घुड़सवार सिपाहियों की यह घोषणा कि ‘ख़ल्क़ खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल सिपाही का।’ बहुत बार बहुत अवसरों पर बादशाह के हुक्म की भी प्रतीक्षा नहीं की गयी। कई ऐसी साहसिक घटनाएँ भी प्रकाश में आईं जब विद्रोही सैनिकों तथा निःशस्त्र ग्रामीणों ने अपने हौसले और विवेक से अंग्रेज अधिकारियों और सेना पर घातक हमले किये। मगरवारा (उन्नाव) में जनरल आउट्म की मजबूत से