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Showing posts from September 21, 2009

लो क सं घ र्ष !: कितना सूना जीवन-पथ है ...

तुम बिन लगता जग ही निरर्थ है। कितना सूना जीवन-पथ है। ये सूनी -सूनी राहें, कितनी कंटकमय लगती। ये काली-काली रातें, काली नागिन सी डंसती॥ विह्वल मन कर रहा अनर्थ है । कितना सूना जीवन पथ है। बात निहार थकी ये आँखें , आशाओं के दीप जलाये। कितने निष्ठुर निर्मम ,निर्दय, सपनो में भी तुम न आए ॥ विरह व्यथित ह्रदय की कथा अकथ है कितना सूना जीवन-पथ है॥ जब भी याद तुम्हारी आई नयनो में आंसू भर आए । अंतर्मन की व्यथा सदा ही हम अन्तर में रहे ॥ असहाय वेदना रोक रही साँसों का रथ है। कितना सूना जीवन-पथ है॥ तुम क्या जानोगे प्रिय ! कैसे पल-पल बरसो सम बीते । मधुर मिलन की आशा में, मरके भी रहे हम जीते॥ आंखों में आ बस जाओ यही मनोरथ है । कितना सूना जीवन-पथ है॥ कितना कठोर है यह विछोह विष, प्रियवर हँस कर पीना । कैसे जियें बताओ अब मुश्किल है जीना ॥ जैसे सम्भव नही , शब्द के बिना अर्थ है। कितना सूना जीवन-पथ है॥ खग कुल का यह कलरव , संध्या की सुमधुर बेला । सुरभि-पवन की मंद चल, मौसम अलबेला॥ सब कुछ तुम बिन लग रहा व्यर्थ है। कितना सूना जीवन -पथ है ॥ रूठोगे न कभी ,कहा था, फिर मुझसे क्यों बिलग हो गए। दुनिया के इस भीड़ में प्रिय!

अपना जहाँ ...

अपना जहाँ ख़ुद ही खो दिया अब भटक रहा हूँ कैसे ?खो दिया ये भी पता नही साँसे थम गई आवाज...... वो भी गुम हो गई मेरी मंजिल तो मिली नही दुसरे का ढूढ़ रहा हूँ अपने ही घर में आग लगाया अब पानी खोज रहा हूँ अँधेरी रात को अपनाया और भटक गया अब चाँद से उजाला मांग रहा हूँ अपना जहाँ ख़ुद ही खो दिया अब भटक रहा हूँ