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Showing posts from February 12, 2010

मॉय नेम इज खानः

आमतौर पर करन जौहर लव स्टोरीज बनाते हैं लेकिन इस बार फिल्म मॉय नेम इज खान के जरिए उन्होंने कुछ हटकर करने की कोशिश की है। संवेदनाओं में रची-बसी फिल्म आम आदमी की जीत दिखाती है। रिजवान (शाहरुख खान) के किरदार को खास बनाने के लिए करन ने काफी मेहनत की है। ऑनस्क्रीन शाहरूख और काजोल ने हमेशा की तरह अपना बेहतरीन दिया हैं, हालांकि शाहरुख के हिस्से में ज्यादा बेहतर सीन आए हैं। काजोल का किरदार थोड़ा फीका नजर आता है। फिल्म की कहानी रिजवान खान नाम के एक ऐसे लड़के की है जो ऑटिज्म से पीड़ित है, उसकी कुछ बातें उसे सामान्य इंसान से अलग करती है, लेकिन कई सारी खूबियां उसे खास भी बनाती हैं। रिजवान मंदिरा से प्यार करता है, जबकि मंदिरा का पहले से एक बेटा है। फिल्म में फ्लैशबैक का अहम स्थान है। बचपन में ही घिनौने आतंक से दो चार हो चुका रिजवान अपने भाई जिमी शेरगिल और प्रेमिका मंदिरा के अलावा मां ( जरीन वहाब ) के साथ एक खास बांडिंग रखता है। रिजवान बचपन में बंबई दंगों और फिर बड़े होकर अमेरिका में 26 / 11 हमले से प्रभावित हुआ है और वह अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलकर उन्हें ये बताना चाहता है कि हां उसका सरनेम खान

लो क सं घ र्ष !: खाद्य सुरक्षा, किसान और गणतंत्र

पिछले दो वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मंचों पर खाद्य सुरक्षा का मुद्दा गरमाया हुआ है। दुनिया के तमाम बुद्धिजीवी से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और खाद्य संकट पर गहरी चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। आंकड़ों का जमघट लगा हुआ हैं। विकासशील देश हों या विकसित देश, संयुक्त राष्ट्र संघ हो या यूरोपियन यूनियन, सबकी चिंता है खाद्य संकट। इस बात की गहरी और सही चिंता व्यक्त की जा रही है कि आने वाले दिनों में विकसित देश अपनी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए खाद्य पदार्थों को दुनिया भर में हथियार की तरह प्रयोग न करने लग जायें। हमारा गणतंत्र 60 वर्ष का हो रहा है। हमारा संविधान मानवीय मूल्यों की गारंटी देता है और भारत के प्रत्येक नागरिक को आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार भी प्रदान करता है। नागरिक के आत्मसम्मान और जीने का अधिकार को दिलाने की गारंटी संघ और राज्य की सरकार पर समान रूप से है। घनघोर दारिद्र की स्थिति में, खाद्यान्न की उत्पादन और उत्पादकता की गिरावट की दौर में संविधान में दिये गये जीने के अधिकार और आत्मसम्मान की हिफाजत कैसे की जाये यह मूल बिन्दु है। सरकारी आंकड़ों के

सलीम ख़ान के पत्रकार भाई समीउद्दीन नीलू (यू पी पुलिस द्वारा उत्पीड़ित) को मानवअधिकार आयोग से राहत, यू पी सरकार को ५ लाख मुआवजा देने का निर्देश

बचपन से सुना करते थे कि ऊपर वाले के यहाँ देर है अंधेर नहीं ! लेकिन देश के मौजूदा सड़े हुए तंत्र में जिस तरह से आम जनता का भरोसा उठ गया है वह भी एक गंभीर समस्या ही है. समीउद्दीन नीलू उत्तर प्रदेश के लखीमपुर ज़िले में विगत एक दशक से ज़्यादा समय से हिंदी दैनिक समाचार पत्र अमर उजाला में बतौर संवाददाता अपनी सेवा कर रहें हैं. शीर्षकान्तर न हो इसलिए मैं यह बताना चाहूँगा कि कैसे मेरे भाई को यूपी की बल्कि लखीमपुर-खीरी की एस पी 'पद्मजा' ने अपने सरकारी पॉवर का दुरुपयोग करते हुए मानवता के क्रूरतम, तंत्र के दुष्टतम कृत्य को मात्र अपने गलत व समाज विरोधी कार्यों को छिपने के उद्देश्य से, जान से मारने की कोशिश (एनकाउन्टर) की और अपने नीचे कार्य करने आले पुलिस वालों की सहायता के ज़रिये उन्हें वन्य जीव अधिनियम के केस में फ़र्ज़ी तरीक़े से जेल भिजवा दिया. लेकिन कहते हैं कि सांच को आंच नहीं, बस कुछ ऐसा ही हुआ. लखनऊ मंडल और बरेली मंडल में वकीलों, किसानों, मजदूरों, पत्रकारों और हाकरों द्वारा किये गए जन-आन्दोलन के चलते प्रशासन के बालों में जूं रेंगी और उन्हें लगभग 9 दिन जेल में रहने के बाद राहत नसीब ह

मैं क्यूँ आजाद हूँ

मैं क्यूँ आजाद हूँ सचमुच आज कल सुबह से उठ के सिर्फ येही एक बात मेरे और शायद कई युवाओं के मन मे आती है ! शायद मैं इसलिए आजाद हूँ की मैं चिंता करूँ की क्या माय नेम इज खान देखनी चाहिए या नहीं .........मैं इसलिए आजाद हूँ की मैं चिंता करूँ की शाहरुख़ खान , क्या सच्चे हिन्दुस्तानी हैं या बाला साहेब सच्चे .......... मैं चिंता करूँ की क्या आई पी एल अछे से संपन्न हो पायेगी या नहीं ............. मैं चिंता करूं की क्या श्री गाँधी मुंबई और आजमगढ़ मे सुरक्षित घूम पाएंगे या नहीं ............. शायद मुझे इस सब बातों की कोई चिंता नहीं है ......... मेरी सिर्फ एक परेशानी है की क्या सचमुच हम आजाद है ......... हम आजाद हैं की सरे नियम कायदे किनारे कर के अपने मन मर्जी का कार्य कर सके .............. हम आजाद हैं की हमें १०० बार सोचना पड़े की महाराष्ट्र जाना सुरक्षित है या नहीं .......... हम आजाद हैं की हमें कुछ गुंडे - बदमाशों को महान कहना पड़े ...........और बहुत कुछ मतलब सिर्फ इतना सा है की मुझे ज्यादा चिंता है पेट्रोल के दामों की ........ घटती हुई नौकरियों की ......... बढती हुई जनसँख्या की ............