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Showing posts from February 10, 2010

ऐसे बदलें शिक्षा का चेहरा

हमारे यहां बच्चों की बढ़ती संख्या के अनुपात में अच्छे स्कूलों का नितांत अभाव है। एक अनुमान के अनुसार यदि छात्र-शिक्षक अनुपात को संतोषजनक स्तर पर बरकरार रखना है तो हमें कम से कम तीन गुना अधिक स्कूल चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह सभी स्कूलों को वित्तीय सहायता दे सके। स्कूलों को वित्तीय दृष्टि से स्वयं सक्षम होना होगा। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नक्शेकदम पर चल रहे हैं। सिब्बल के पास नेहरू के जैसा ही विजन है, नेहरू के समान ही एक सपना है। लेकिन दुर्भाग्य से नेहरू के समान ही सिब्बल भी प्राथमिक शिक्षा की तुलना में उच्च शिक्षा को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। सवाल है कि दस साल की सड़ी-गली शिक्षा से जो नुकसान हो चुका होगा, क्या उसकी खानापूर्ति चार-पांच साल की कॉलेज शिक्षा से की जा सकती है? विभिन्न अध्ययनों व सर्वे से एक बात सामने आई है कि बिहार के प्राथमिक स्कूलों के बच्चों का प्रदर्शन महाराष्ट्र, गुजरात या मध्यप्रदेश के स्कूली बच्चों से बेहतर रहा है। इसकी एक वजह यह हो सकती

हिन्दुस्तान का दर्द के २००० पोस्टों का जश्न

मुझे यह बताते हुए बड़ा हर्ष हो रहा है की हिन्दुस्तान का दर्द के आज एक पोस्ट के साथ २००० पोस्टों का काफिला पूरा हो चूका है जिसके लिए संजय सेन सागर जी को हार्दिक बधाई साथ ही साथ हिन्दुस्तान का दर्द के सभी लेखों और पाठकों को भी हार्दिक बधाई ,यह मंच इसी तरह प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है इसी शुभकामना के साथ.......... आगे पढ़ें के आगे यहाँ

लो क सं घ र्ष !: महंगाई पर केन्द्र व राज्य सरकारों की तू-तू, मैं-मैं,

मंहगाई के मुददे पर केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच वाकयुद्व चल रहा है। एक दूसरे पर मंहगाई को नियंत्रित न करने का आरोप लगाया जा रहा है। राज्यों की गेर कांग्रेसी सरकारों केन्द्र में स्थापित मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को बढ़ती महंगाई का दोषी बतला रही है तो मनमोहन सरकार की सहयोगी एन0सी0पी0 के मुखिया व भारत सरकार के कृषि मंत्री शरद पवार की बयानबाजी आग में घी का काम कर रही है। महंगाई की चक्की में पिस केवल गरीब रहा है और उसके लिए हालात बद से बदतर होते चले जा रहे हैं। कहते हैं कि किसी भी काम की सफलता के पीछे उद्देश्य व नीयत का बहुत योगदान होता है महंगाई के मुद्दे पर फिलहाल ना तो नीयत केन्द्र सरकार की साफ दिखती है ना विपक्षी दलों की और ना प्रान्तों की सरकारों की। हर कोई महंगाई के मुद्दे की गेंद एक दूसरे के पाले में फेंककर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में जुटा है। देश की अर्थव्यवस्था कृषि नीति व वाणिज्य व्यापार जिसके तहत आयात एवं निर्यात आता है, पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण होता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर भी नियंत्रण केन्द्र सरकार रखती है राज्य सरकारें केवल केन्द्र द्वारा प्रतिपादित नीतियों पर

'ट्रेन रोको आंदोलन'' की अनछुई हकीकत

'ट्रेन रोको आंदोलन''  सागर को रेल सुबिधा मुहैया करने की एक कोशिश है,लेकिन इसकी वास्तविकता और अनछुए पहलू पर नजर डाली जाये तो यह कदम हमें विकास से कुछ मिनिट या कुछ घंटे पीछे तो धकेल ही सकता है.सागर को विकास की जरुरत है और विकास के लिए आवश्यक होता है की आवाज़ उठाई जाए लेकिन वास्तव में आवाज़ उठाने का भी एक स्तर होता है,हमें अपने हितों से पहले ये देखना होता है की कही  इससे  किसी और के  हितों पर आंच तो नहीं आ रही है, कल सागर के बाशिंदे मकरोनिया रेलवे स्टेशन पर रेलगाड़ी को रोककर रखेंगे चूकी मकरोनिया को रेल सुबिधा मुहैया करानी है ,होनी भी चाहिए क्या फर्क पड़ता है की अगर उस ट्रेन में कोई ऐसा व्यक्ति बैठा है जिसके पिता गुजर गए है,जिसकी माँ की हालत गंभीर है,किसी को ऑफिस जल्दी पहुंचना है और क्या फर्क पड़ता है की अगर किसी औरत की डिलीवरी होनी है और उसे अस्पताल पहुँचने की जल्दी है,जी नहीं सरकार कोई फर्क नहीं पड़ता. इस तरह के आंदोलन में देश के वो प्रभावशाली लोग शामिल होते  है जिनके हाथ में संसद और विधानसभा तक की ताकत होती है और होनी भी चाहिए हमने आखिर इसी के लिए उनका चुनाव कि