कविता: जीवन अँगना को महकाया संजीव 'सलिल' * * जीवन अँगना को महकाया श्वास-बेल पर खिली कली की स्नेह-सुरभि ने. कली हँसी तो फ़ैली खुशबू स्वर्ग हुआ घर. कली बने नन्हीं सी गुडिया. ममता, वात्सल्य की पुडिया. शुभ्र-नर्म गोला कपास का, किरण पुंज सोनल उजास का. उगे कली के हाथ-पैर फिर उठी, बैठ, गिर, खड़ी हुई वह. ठुमक-ठुमक छन-छननन-छनछन अँगना बजी पैंजन प्यारी दादी-नानी थीं बलिहारी. * कली उड़ी फुर्र... बनकर बुलबुल पा मयूर-पंख हँस-झूमी. कोमल पद, संकल्प ध्रुव सदृश नील-गगन को देख मचलती आभा नभ को नाप रही थी. नवल पंखुडियाँ ऊगीं खाकी मुद्रा-छवि थी अब की बाँकी. थाम हाथ में बड़ी रायफल कली निशाना साध रही थी. छननन घुँघरू, धाँय निशाना ता-ता-थैया, दायें-बायें लास-हास, संकल्प-शौर्य भी कली लिख रही नयी कहानी बहे नर्मदा में ज्यों पानी. बाधाओं की श्याम शिलाएँ संगमरमरी शिला सफलता कोशिश धुंआधार की धरा संकल्पों का सुदृढ़ किनारा. * कली न रुकती, कली न झुकती, कली न थकती, कली न चुकती. गुप-चुप, गुप-चुप बहती जाती. नित नव मंजिल गहती जाती. कली हँसी पुष्पायी आशा. सफल साधना, फलित