Source: गोपालकृष्ण गांधी | इससे पहले मोहल्ला लाइव, यात्रा बुक्स और जनतंत्र का आयोजन ऐसी क्यों है जिंदगी चेन्नई में वह टैक्सी मुझे सेंट्रल स्टेशन की ओर लिए जा रही थी। सुबह के पांच बजे थे। बेंगलुरू के लिए मुझे जो शताब्दी गाड़ी लेनी थी, वह साढ़े छह बजे छूटने वाली थी। सड़कों पर ट्रैफिक और भीड़भाड़ बिल्कुल नहीं थी। जैसे ही हम बगल से मंदिर से होकर गुजरे, टैक्सी ड्राइवर ने चुपचाप मन-ही-मन प्रार्थना की और फिर आगे बढ़ गया। सूर्योदय के पहले की उस बेला में मरीना समुद्र तट एक आकर्षक पट्टी की तरह दिख रहा था। हमारी गाड़ी उस तट के किनारे-किनारे से होती गुजरी। यह कहने की जरूरत नहीं कि हम बहुत कम समय में स्टेशन पहुंच गए। ड्राइवर नीचे उतरा, सामान उतारने में मेरी मदद की, अपना किराया लिया और उतना ही चुपचाप शांति से वापस लौट गया, जितना चुपचाप शांति से वह मुझे लेकर आया था। कोई शक नहीं कि लौटते हुए रास्ते में वह हर लाल बत्ती को तोड़कर निकल जाने वाला था क्योंकि अब भी हल्का अंधेरा ही था। एयरकंडीशंड डिब्बे की आरामदायक कुर्सी पर बैठे हुए जब मैंने देखा कि मेरे कोच की बड़ी सीटों वाली कम-से-कम तीन खिड़कियों