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Showing posts from September 1, 2009

लो क सं घ र्ष !: जब भटक गया पथ प्रदर्शक ही.....

जन जीवन की वहां सुरक्षा , मात्र कल्पना , भक्षक बन गया जहाँ रक्षक ही ॥ कहाँ मिले गंतव्य पथिक को जब भटक गया पथ प्रदर्शक ही ॥ कैसे हरा भरा उपवन हो कैसे कलि - कलि मुस्काए कैसे कोयल मधुरस घोले कैसे कहो वसंत ऋतू आए । आग लगा दे जब उपवन का संरक्षक ही । जब भटक गया पथ प्रदर्शक ही ॥ अधरों पर मुस्कान हो कैसे , कैसे मिटे दुराशा मन की कैसे सुख और शान्ति आए , कष्ट मिटे कैसे जन - जन की हत्यारा बन गया जहाँ पर आरक्षक ही । जब भटक गया पथ प्रदर्शक ही ॥ हिंसा जहाँ पूज्य हो ,कैसे मानवता को प्राण मिले । जीवन के इस महाशिविर से बोलो कैसे त्राण मिले ॥ अन्धकार का ग्रास बन गया जब दीपक ही । जब भटक गया पथ प्रदर्शक ही ॥ कैसे फिर किलकारी गूंजे , मुरझाया चेहरा मुस्काये । भूख - प्यास - भय की तड़पन से मानव कैसे मुक्ति पाये ॥ राज धर्म को भूल गया जब जन नायक ही । जब भटक गया पथ प्रदर्शक ही ॥ मानवता का गला घोटकर लोकतंत्र की बलि चढाते । धर्म के ठेकेदार - अहिंसा के शिक्षक ही ।