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Showing posts from July 8, 2010

EXCLUSIVE: अनुराग की उड़ान के कुछ पुराने पन्ने

Eन्ने फिल्म निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप इन दिनों चर्चा में हैं। यात्रा बुक्स , मोहल्ला लाइव और जनतंत्र की साझा पेशकश बहसतलब -दो में आने के बाद से उनका घेराव हो रहा है। अनुराग ने फिल्मी दुनिया की एक हक़ीक़त बयां की। बताया कि कैसे फिल्म निर्देशकों के हाथ बंधे हैं। और बंधे हुए हाथों के साथ आंदोलनी फिल्में नहीं बनाई जा सकती। उन्होंने यह भी बताया कि फिल्मों में पैसा लगाने वाले मुनाफा देखते हैं। मुनाफा नहीं मिलने का हल्का सा अहसास भी उन्हें आम आदमी से जुड़ी फिल्मों में पैसा लगाने से रोकता है। बिना पैसे के फिल्में बनती नहीं। कुछ पैसे का इंतजाम करके अगर कोई फिल्म बना भी ले तो रिलीज नहीं होती। यही वजह है कि दर्जनों की संख्या में बेहतरीन फिल्में बन कर तैयार हैं लेकिन उन्हें रिलीज कराने को कोई तैयार नहीं। ये सच वो सभी जानते हैं जो सिनेमा के जरिए क्रांति करने के इरादे से बॉलीवुड पहुंचे और हाशिए पर ढकेल दिए गए। वो भी जिन्होंने खुद को वहां के माहौल में ढाला और अच्छी फिल्में बनाने के लिए स्पेस बढ़ाने की कोशिश की। थोड़ी कामयाबी मिली। थोड़ी और कामयाबी हासिल करने की कोशिश जारी है। फिल्म इंडस्ट्री

लो क सं घ र्ष !: दोनो हाथ बटोरिये यही सयानो काम

भ्रष्टाचार भी एक उद्योग है , जो उच्च स्तर पर खूब फल फूल रहा है , नेता हों या अधिकारी दोनो मौसेरे भाई इसमें आकंन्ट डूबे हुए हैं। इससे बढ़ कर लाभ का कोई धंधा नहीं। पहले ‘ इन्वेस्ट ‘ कीजिये फिर जेबें भरिये। कुछ वर्ष पहले तक चुनाव अधिक मंहगे नहीं थे , न पढ़ाई में ज़्यादा ख़र्च था , न ही नौकरी पाने हेतु रिश्वत देने का ग्राम प्रधान चुनाव में अधाधुंध खर्च करेंगे , तो बाद में अगर पैसा न लेंगे तो असल चुनाव कैसे लड़ेंगे ? कोठी , वाहन , सम्पति कैसे जुटायेंगे। अधिकारी के अभिभावक शुरू ही से पढ़ाई पर कितना ख़र्च करते हैं ? फिर ‘ डोनेशन ‘ देते हैं , नौकरी में भर्ती के लिये जुगाड़ के साथ - साथ पैसा भरते हैं। अब यही लोग जब सीट पर पहुचते हैं तो उनका यही ध्येय होता है - ‘दोनो हाथ बटोरिये यही सयानो काम‘। लोकतंत्र के तीन स्तम्भ हैं - इनमें से दो विधायिका और कार्यपालिका के तो रंग ढंग आप देख ही रहे हैं - भ्रष्टाचार में दोनो एक दूसरे को बचाते हैं। तीसरा खम्भा

मै कलुवा पुर का नाई हूँ..

मै गली गली पगडण्डी पर लोगो का बाल बनाता हूँ॥ मै कलुवा पुर का नई हूँ, उंच नीच घर जाता हूँ॥ जहा दान दक्षिणा का मेला देते लोग आशीष है॥ उनकी सेवा में हाज़िर होता मुझको मिलती फीस है॥ जहा में बोली थम जाती है सब उनकी अलख जगाता हूँ॥ मै बोली में बिलकुल माहिर हूँ अच्छो की तेल लगाता हूँ॥ काम को अपने पूज्य समझता चौखट पे हरदम जाता हूँ॥ कभी कभी गुंडों के घर में रस्सी से बांधा जाता हूँ॥ कोई कोई क़द्र न करता मजदूरी नहीं देता॥ मेरी किस्मत में जो धन था उसको छीन भी लेता॥ बड़े नबाबो में घर जा कर ऊचे मूल्य बिकाता हूँ॥