बच्चों को भी देश के संवैधानिक ढांचे में दखल का अधिकार दिये जाने की बातें जब तब उठती रही हैं, जो वाजिब भी है। आखिर देश में बच्चों की आबादी कम नहीं है और उनके बारे में बहुत गंभीरता से विचार करने वालों ने भी अक्सर उनका बहुत भला नहीं किया है। हमारे देश में जो पारम्परिक ढांचा है उसमें बच्चा अपने अभिभावकों के सपनों और आकांक्षाओं का एक हद तक गुलाम है।सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ बच्चों को भी देश के संवैधानिक ढांचे में दखल का अधिकार दिये जाने की बातें जब तब उठती रही हैं, जो वाजिब भी है। आखिर देश में बच्चों की आबादी कम नहीं है और उनके बारे में बहुत गंभीरता से विचार करने वालों ने भी अक्सर उनका बहुत भला नहीं किया है। हमारे देश में जो पारम्परिक ढांचा है उसमें बच्चा अपने अभिभावकों के सपनों और आकांक्षाओं का एक हद तक गुलाम है। वे उससे वह सब चाहते हैं जो कई बार उसके पैदा होने से पहले से सोच रखा होता है। बगैर उसकी क्षमताओं और रुचियों का आकलन किये उस पर जिम्मेदारियों का बोझ लादने की तैयारी हमेशा रहती है। बच्चों को एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में नहीं देखा जाता। कदम-कदम पर उनकी भावनाएं आहत होती हैं और