भारतीय सिनेमा ने 100 साल का अपना सफर पूरा कर लिया है. इस सफर में इतने पड़ाव, इतने चेहरे, इतनी आवाजें, इतने मोड़, सफलता की इतनी अट्टालिकाएं हैं कि इस पर कोई भी बात करने के लिए कई सौ पन्नों भी नाकाफी साबित होंगे. इस सफर को एक पन्ने में समेटना गागर में सागर भरने से भी कहीं ज्यादा कठिन काम है. सिनेमा के 100 साल के सफर को हमने दशक की बेहतरीन फिल्मों के हिसाब से देखने की कोशिश की है. जाहिर है ऐसी हर कोशिश आखिरकार बहुत कुछ छूट जाने का अहसास दे जायेगी. यहां भी ऐसे कई नाम छूट गये, जिसे बहुत से लोग अपनी पसंदीदा फिल्म मानते हैं. इन सीमाओं के भीतर सदी के सिनेमा का जायजा देने की हमारी कोशिश.. -विनोद अनुपम- भारतीय सिनेमा के 100वें वर्ष पर जितनी जरूरत दादा साहब फाल्के के ‘राजा हरिश्चंद्र’ को याद करने की है, शायद उतनी ही जरूरत परेश मोकाशी की मराठी फिल्म ‘हरिश्चंद्राची फैक्टरी’ को भी. ऑस्कर की दौड़ में यह फिल्म भले ही पिछड़ गयी हो, लेकिन जब भी भारतीय सिनेमा के अतीत की ओर झांकने की जरूरत पड़ेगी, यह फिल्म हमारे दिल के सबसे करीब रहेगी. ‘राजा हरिश्चंद्र’ का महत्व सिर्फ हिंदुस्तान की पहली फिल्म क