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Showing posts from May 28, 2018

दोहा सलिला

ओशो चिंतन: घाट भुलाना 4 * शिष्य बने कोई अगर, है उसका अधिकार। गुरु न बनूँ मैं, है मुझे,  केवल यह स्वीकार।। * पंगु करें गुरु; शिष्य का, लेकर खुद पर भार। अपना बोझा कम नहीं, क्यों लूँ और उधार।। * ठीक लगे जो बात वह, कहता; सुनते आप। लेन-देन संबंध अति, सूक्ष्म न सकते माप।। * मेरी बातें सुन करें, आप अनुग्रह सत्य। नहीं अनुग्रह मानिए, उचित नहीं यह कृत्य।। * लेन-देन के नियम हैं, सूक्ष्म न सकते जान। कुछ धन, श्रद्धा, अनुगृह, लेते नहीं सुजान।। * धन्यवाद है आपको, सुन ली मेरी बात। यही न कम; है समय ही, कहाँ रहा अब भ्रात।। * बात हुई; फिर कुछ नहीं, मुझे प्रयोजन शेष। गुरु-अनुशासित ही रहा, भले हमारा देश।। * गुरु से ले आदेश सब, चलते हैं विपरीत। संबंधों  की त्रासदी, बना-तोड़ते रीत।। * मैं क्यों दूँ आदेश; तुम, क्यों मानो आदेश? दे आदेश न; निवेदन, करता; यह संदेश।। * ढाँचे में बँधता नहीं, रोक न सके जमीन। निज विचार क्यों दूँ नहीं, क्यों हो रहूँ अधीन।। * छ: सौ एकड़ भूमि दे, रही हमें सरकार। नारकोल में शीघ्र ही, करते मित्र विचार।। * मित्र कहें मत बोलिए, ले लें प्रथम जमीन। तब गाँधी